Friday 27 January 2012

तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह को दुहरा सकता है?


तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह को दुहरा सकता है? हालां कि इस की तुरंत कोई संभावना नहीं दिखती। पर आशंका भरपूर है। और इस बात की ज़रुरत भी। प्रणव मुखर्जी के अंदर प्रधानमंत्री बनने की इच्छा तो बहुत दिनों से है। बस जो नहीं है उन के अंदर वह साहस नहीं है। बगावत का साहस। बाकी तो सब कुछ है उन के अंदर। और देश की राजनीतिक स्थितियां भी उन के मनोनुकूल हैं।
यह वालमार्ट, यह जनलोकपाल, यह चिदंबरम, यह राजा, यह कलमाड़ी वगैरह के नज़ारे देख कर दुष्यंत कुमार का शेर याद आता है कि 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, इस कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।' और कि यह सब देख कर अब जाने क्यों विश्वनाथ प्रताप सिंह की याद भी आने लगी है। और सोच रहा हूं कि आज की तारीख में कांग्रेस में कोई एक भी साहसी राजनीतिज्ञ क्यों नहीं है? एक भी राजनारायन जैसा हनुमान क्यों नहीं है जो इस अनीति की लंका में आग लगा दे? सोचिए कि साठ हज़ार करोड़ के बोफ़ोर्स घोटाले में अभूतपूर्व और प्रचंड बहुमत पाने वाले राजीव गांधी की सरकार एक विश्वनाथ प्रताप सिंह की बगावत में बह गई थी। और अब लाखों-लाख करोड़ के एक नहीं अनेक घोटाले-घपले हमारे सामने रोज-ब-रोज सामने आते जा रहे हैं तो यह जोड़-तोड़ के बूते चलने वाली गठबंधन सरकार की चूलें फिर भी कोई हिलाने वाला क्यों नहीं हमारे पास है? इंदिरा गांधी ने बांग्‍ला देश की विजय, प्रीवीपर्स, बैकों के राष्ट्रीयकरण, गरीबी हटाओ जैसे लोकप्रिय नारे के बावजूद जब तानाशाही और फ़ासिज़्म की बयार बहाई तब एक लोकनायक हमारे बीच उपस्थित हुआ। और आमार दीदी, तोमार दीदी, इंदिरा दीदी ज़िंदाबाद के मिथ को तोड़ कर उन की तानाशाही ऊखाड़ फ़ेंका था। १९७७ के चुनाव के तुरंत बाद खिंची गई रघु राय की वह फ़ोटो अब भी आंखों में बसी हुई झूल रही है जिस में एक जमादार झाडू लगा रहा है और इंदिरा गांधी की फ़ोटो वाली पोस्टर उस के झाडू में समाई कूडे़दान के हवाले हो रही है।
खैर, जनता पार्टी की सरकार आई और अपनी ही बार-बार की मूर्खताओं और खुराफ़ातों की कढ़ाई में चढ़ कर बलि चढ़ गई। इंदिरा जी फिर लौट आईं। सत्ता में। उन का दुलारा राजकुमार हवाई जहाज गलत ढंग से उड़ाने की ज़िद में जब मौत से दोस्ती कर बैठा तब वह अपने जहाज चलाने वाले बेटे को राजनीति में ले आईं। वह आया और बेमन से आया। पर जल्दी ही मिस्टर क्लीन बन कर छा गया। देश का दुर्भाग्य देखिए कि खलिस्तान आंदोलन को कुचल कर रख देने वाली इंदिरा जी की हत्या हो गई। और यह उन का जहाज उड़ाने वाला लड़का ही प्रधान मंत्री बन बैठा। और कुर्सी संभालते ही बोल दिया कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है। इंदिरा जी की हत्या के बाद सिखों के प्रति लोगों के मन में क्षोभ तो था ही राजीव के इस बयान के बाद उन के चापलूस दरबारियों ने इस का यह अर्थ लगा लिया कि सिखों को मारो। और देश भर में सिखों को ज़िंदा जलाया जाने लगा। उन्हें लूटा जाने लगा। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने तो बाद में मुस्लिमों को घेर घेर कर मरवाया। सबक सिखाया गोधरा का। कहा गया कि सरकार ने दंगे करवाए। पर इस का देशव्यापी पहला सबक अपने कांग्रेसी राजीव गांधी ने ही सिखाया। मोदी पर आज आरोप लगाने वाले कांग्रेसी यह शायद भूल गए हैं। लेकिन चैनलों पर जब बहस होती है गुजरात दंगों को ले कर तो भाजपाई कांग्रेसियों को सिख दंगा याद दिलाना नहीं भूलते।
खैर यह दूसरा विषय है अभी। लेकिन तभी एक घटना और घटी थी। यह आज के परेशान प्रणव मुखर्जी जो इंदिरा सरकार में वित्त मंत्री रहे थे। और जैसे कि कभी कामराज और द्वारिका प्रसाद मिश्र ने इंदिरा गांधी को बच्ची मान कर गलती कर अपनी राजनीतिक हत्या कर ली थी, वही गलती प्रणव मुखर्जी ने इंदिरा जी की हत्या के बाद कर ली। उसे आज तक भुगत रहे हैं। अमूमन वित्त मंत्री या फिर गृह मंत्री को प्रधान मंत्री के बाद नंबर दो मानने की एक परंपरा सी रही है। तो तब प्रणव मुखर्जी ने अपने नंबर दो होने की आड़ में दबी जबान प्रधान मंत्री पद की दावेदारी कर दी। राजीव गांधी और उन की मित्र मंडली चौंक गई। और राजीव के राज में प्रणव मुखर्जी किनारे लगा दिए गए। खैर, अगर इंदिरा गांधी खलिस्तान आंदोलन को कुचलने के फेर में शहीद हुईं तो राजीव गांधी लिट्टे को लपेटने के चक्कर में शहीद हुए। लोकसभा के ऐन चुनाव में। बहरहाल चुनाव बाद चुनाव न लड़ने वाले नरसिंहा राव की न सिर्फ़ लाटरी खुल गई वह प्रधानमंत्री हुए और अल्पमत की सरकार को निर्बाध चलाने का हुनर भी दिखा गए। शिबू सोरेन, अजीत सिंह जैसे घटक उन के काम आए। और इस सब के बीच जो बड़ी घटना घटी वह यह कि मनमोहन सिंह को नरसिंहा राव ने धो-पोछ कर निकाला और वित्त मंत्री बना दिया। और मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की नदी बहा दी। वह आर्थिक उदारीकरण की नदी अब समुद्र से मिल कर समुद्र में तब्दील है। हम आप आज मंहगाई, भ्रष्टाचार की नाव के साक्षी बने गोते खा रहे हैं। पर इन नावों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
आप याद कीजिए नरसिंहा राव को। तमाम घटनाएं घट जाती थीं पर वह बोलते नहीं थे। अटल विहारी बाजपेयी उन्हें चुहुल में मौनी बाबा कहने लग गए। और देखिए न आप अब मनमोहन सिंह को मौनमोहन कहने ही लगे हैं। नरसिंहा राव गए तो मिली जुली सरकारों को ज़माना आ गया। अटल विहारी, देवगौडा, गुजराल आदि के बाद कांग्रेस लौटी तो सोनिया गांधी की मनाही के बाद मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्री बनने के कयास लगने लगे। प्रणव मुखर्जी फिर मिस टाइम हो गए। बोल पडे़ कि मनमोहन को तो उन्हों ने रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था। फिर घपला हो गया। लेकिन सोनिया की शतरंजी बुद्धि ने, चेक एंड बैलेंस की रणनीति में मनमोहन पर चेक प्वाइंट के मद्देनज़र प्रणव मुखर्जी को मंत्रिमंडल में बैठा दिया। और मनमोहन ने उन्हें सर-सर कह कर उन का इगो मसाज़ भी किया और साथ ही उन को चेक एंड बैलेंस के लिए चिदंबरम को उकसा दिया। अब इसे प्रणव मुखर्जी का बर्दाश्त कहिए, धैर्य कहिए या कुछ और कि वह इतने दिनों से मार आसूसी-जासूसी के बावजूद चिदंबरम और मनमोहन को निरंतर न सिर्फ़ झेल रहे हैं, मौके बेमौके सरकार के लिए संकटमोचक भी बने ही रहते हैं। अपने ज़मीन से जुडे होने और चुनावी ठोंक-पीट की गणित का अनुभव वह आज़माते रहते हैं। और जब तब ज़्यादा हो जाता है कूटनीतिक चालें भी चल कर चिदंबरम जैसों की नकेल भी कस ही देते हैं। चिदंबरम की नाव के छेद दुनिया को दिखा ही देते हैं। इस बहाने वह मनमोहन की चूडियां भी जब तब कसते रहते हैं। लेकिन सब कुछ के बावजूद, सारी लानत-मलामत के बावजूद वह हस्तिनापुर की निष्ठा से बंधे भीष्म पितामह की तरह लाचार दिखते हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह की भूमिका को दुहराने से कतरा जाते हैं।
तय मानिए कि तमाम भ्रष्टाचार, मंहगाई, जनलोकपाल और आतंकवाद को ले कर ऐन कांग्रेसियों के चेहरे पर छाई लाचारी साफ पढ़ी जा सकती है। अधिकांश इस सब से उकताए हुए हैं। पर सब बेबस हैं। हस्तिनापुर की निष्ठा से बंधे हुए। महाभारत में भी भीष्म पितामह को कोई समझाने वाला नहीं था कि हस्तिनापुर की निष्ठा से बंधे रहने का मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि आप धृतराष्ट्र और दुर्योधन की अनीति से भी बंधे रहें। अंधे आदमी के बताए रास्ते पर चलते ही रहें। और इस समय प्रणव मुखर्जी समेत उन तमाम कांग्रेसियों को भी कोई समझाने वाला नहीं है कि देश और जनता रहेगी तभी कांग्रेस और नेहरु परिवार भी रहेगा। तभी हस्तिनापुर की उन की निष्ठा भी दिखेगी। तब तो एक विदुर भी कोई था यह सब संकेतों में ही सही कहने वाला। अब कोई एक विदुर भी नहीं दिखता। सवाल फिर भी छूटा रह जाता है कि क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह की भूमिका को दुहराने की कवायद या दुस्साहस कर सकता है? और यह भी कि विश्वनाथ प्रताप सिंह तो मंडल -कमंडल में फंस कर एक असफल प्रधानमंत्री साबित हुए और फ़ुसफ़ुसा कर रह गए। अपनी लिफ़ाफ़ा शीर्षक कविता, ' पैगाम उन का/ पता तुम्हारा/ बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा!' की तर्ज़ पर लिफ़ाफ़ा की गति पा कर फट कर रह गए। पर अगला बागी भी क्या विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह लिफ़ाफ़ा न बन पाए यह भी कैसे सुनिश्चित हो, यह भी एक यक्ष प्रश्न है। पर यह प्रश्न तो अब समाधान चाहता ही है कि एक विश्वनाथ प्रताप सिंह की दरकार कब पूरी होगी? क्या यह समाधान प्रणव मुखर्जी ही देर सवेर बनेंगे या कोई और?
क्यों कि मनमोहन सिंह न तो अच्छे प्रधानमंत्री साबित हुए हैं न अच्छे अर्थशास्त्री। समूचे देश को जिस तरह उन्हों ने मंहगाई और भ्रष्टाचार की भट्ठी में झोंका है और बेहिसाब झोंका है उस का कोई और प्रतिकार या कोई और रास्ता देश ढूंढ रहा है। क्यों कि वह अटलविहारी बाजपेयी और थे जो अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को राजधर्म पालन करने की फटकार लगा देते थे पर यह मनमोहन सिंह तो राजा, कलमाडी या चिदंबरम जैसों का भ्रष्टाचार धृतराष्ट्र बन कर देखता रहता है और चुप रहता है इस डर से कि कहीं प्रधानमंत्री की नौकरी न चली जाए। और परमाणु समझौता इस डर से सरकार दांव पर लगा कर करता है कि अमरीका कहीं नाराज न हो जाए। वालमार्ट लाने की ज़िद इस लिए करता है कि अमरीका नाराज न हो जाए। अब तो लोग कहने भी लगे हैं कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं वर्ल्ड बैंक के नौकर की तरह काम करने लगे हैं। देश और जनता उन की प्राथमिकता में नहीं है। दरअसल चुनाव बिना लडे़ अगर कोई प्रधानमंत्री बनेगा, जिस की जवाबदेही जनता के प्रति नहीं होगी, वह ऐसे ही काम करेगा।
आप में से कोई अगर राहुल में देश का प्रधानमंत्री ढूंढता है तो वह अपनी आंख का मोतियाबिंद उतार ले। राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की तरह बातें तो अच्छी अच्छी कर लेते हैं पर राजनीतिक ज़मीन की हकीकत उन की समझ से बहुत दूर है। वह उत्तर प्रदेश में तो आ कर भडकाऊ भाषण झोंक जाते हैं और पूछ जाते हैं कि आप को गुस्सा क्यों नहीं आता? पर केंद्र के बूते मंहगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन की ज़ुबान को काठ मार जाता है, लकवा मार जाता है। उन को किसी 'परम होशियार' ने समझा दिया है कि उत्तर प्रदेश ही उन्हें प्रधानमंत्री बना सकता है। सो वह अपनी सारी प्रतिभा और ऊर्जा उत्तर प्रदेश में उडे़ल रखे हैं। बिना यह सोचे कि नरसिंहा राव, देवगौड़ा, गुजराल से लगायत मनमोहन सिंह तक उत्तर प्रदेश के बिना ही प्रधान मंत्री पद की मलाई गट कर ली है तो भैया आप काहें उत्तर प्रदेश की धूल फांकने में निपट रहे हो? और बंदोबस्त देखिए कि अमेठी जाते हैं तो अपने सांसद संजय सिंह को साथ लेते नहीं। सिद्धार्थ नगर जाते हैं तो वहां के सांसद जगदंबिका पाल को साथ ले जाना भूल जाते हैं। और चले हैं उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस को ज़िंदा करने। जिस आदमी में इतनी भी राजनीतिक समझ न हो उस से आप इतनी बड़ी उम्मीद भला कैसे लगा सकते हैं?
हां, अगर आप अन्ना हजारे में बदलाव की कोई आहट ढूंढ रहे हैं तो भी दिन में तारे देखने की कसरत में लग गए हैं। यह ज़रुर है कि जनता का ज्वार उन के आंदोलन में दिखा है। पर यह जानिए कि जनता का यह ज्वार बेलगाम मंहगाई और भ्रष्टाचार की उपज है न कि अन्ना हजारे के आंदोलन की कमाई है यह। वह तो जनता ने अन्ना नाम का एक कंधा ढूंढा है जिस पर वह सर रख कर अपना गुस्सा, अपनी विवशता का इज़हार कर सके। पर यह सब अन्ना के वश का है नहीं। कारण कई हैं। एक तो वह अतार्किक बातें करते हैं। अहं ब्रह्मास्मि की भी गंध वह बार-बार देते रहते हैं। निरपेक्ष नहीं हैं। तराजू कई हैं उन के पास और घटतौली के वह आदी हैं। नहीं जब मुंबई में उत्तर प्रदेश या बिहार के मज़दूर पिटते हैं तब उन की ज़ुबान खामोश क्यों हो जाती है? सांस तक नहीं लेते? उन के सहयात्रियों पर आरोप प्रत्यारोप, अंतर्विरोध की अनंत फेहरिस्त अलग है। दूसरे राजनीतिज्ञ भी नहीं है वह न ही राजनीतिक सोच है। न ही कूटनीतिक कौशल है उन के पास। और यह लिख कर रख लीजिए कि जैसा जनलोकपाल वह चाहते हैं वैसा जनलोकपाल किसी सूरत में यह सरकार तो क्या कोई भी सरकार नहीं बना पाएगी। और न यह बनवा पाएंगे। झुनझुना बजाना और बात है, काम हो जाना और बात है। वैसे भी इस देश में अगर कोई बदलाव होगा या हो सकता है तो राजनीतिक तौर तरीकों से ही संभव है। लोकनायक जय प्रकाश नारायन ने जो बदलाव किया वह राजनीतिक ढंग से ही संभव हुआ था। हालां कि उन के राजनीतिक आंदोलन में कई गैर राजनीतिक लोग भी शामिल थे। तो भी तौर तरीके सब राजनीतिक ही थे। तो अब भी कोई बदलाव संभव है तो राजनीतिक तौर पर ही संभव है। अब अलग बात है कि राजनीतिक पार्टियां और संसदीय राजनीति दोनों ही बहुसंख्यक जनता के बीच अपनी साख गंवा बैठी हैं। तो भी दुष्यंत कुमार फिर याद आ जाते हैं: ' कौन कहता है आकाश में सुराख नहीं हो सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!' इस लिए भी कि राजनीति हमेशा एक संभावना है। तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही संभावना बनेंगे? या यह संभावना शून्य है? यह देखना दिलचस्प होगा। यह भी कि बिल्ली के गले घंटी कौन बांधेगा? यानी साहस कौन दिखाएगा। बदलाव की आग तो समूचे देश में दिख रही है। अब इस बदलाव का नेतृत्व किस के हाथ जाता है, जाता भी है कि नहीं क्या पता? क्या पता प्रणव मुखर्जी ही साहस दिखा जाएं? यह कौन जानता है?

1 comment:

  1. aapka lekh badhiya laga. mera ek prashan hai ke gujarat me ek bar fir jati ke aadhar par rajniti sharu ho gai hai. keshubhai ek bar fir virodh ke tevar me dikh rahe hai. aur gujarat cong to murda ki tarah hi hai.. aise me agala cm kaun hoga? aur kya rahul gujarat me bhi prachar ke liye aayenga...apke javab ka injar rahega.........

    from- bharat gangani , ahmedabad

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