Tuesday 14 February 2012

सब का दर्द खोलने वाली वीणा विष्णु प्रभाकर

दयानंद पांडेय 



विष्णु प्रभाकर का नाम आते ही मन एक तरल श्रद्धा से भर जाता है। उन का व्यक्तित्व ही ऐसा था। मैं ने इस छोटी सी जिं़दगी में बहुत से बड़े-बड़े लोगों से मिलने का सौभाग्य पाया है। ख़ास कर सहित्य, राजनीति, फ़िल्म, थिएटर, प्रशासन, खेल और अपराध तक के बड़ों से साबक़ा पड़ा है। और हर बार मैंने पाया है कि जो लोग सचमुच बड़े होते हैं वह आप को तुरंत अपना बना लेते हैं। और आप चाहे कितने ही अयोग्य हों या योग्य हों वह आप को तुरंत अपने बराबर बैठा लेते हैं और आप को अपने से ज़्यादा सम्मान दे कर अपनी आत्मीयता में फ़ौरन डुबो लेते हैं। फिर आप आजीवन उन के हो कर रह जाते हैं। विष्णु जी इन्हीं जैसों में थे। हां, ऐसे भी बड़ों से मेरा साबक़ा पड़ा है जो आप अयोग्य हों योग्य इससे उनको फ़र्क़ नहीं पड़ता। वह आप से ऐसे मिलेंगे जैसे वह हिमालय हों और आप उनके आगे तिल हों। आप आदमी नहीं कीड़े-मकोड़े हों। वह आप को अपनी सफलता के बुलडोजर तले रौंद-रौंद कर बौना बनाए रखेंगे और अंततः अपने ‘बड़े’ को आप के सामने आजीवन बौना बने रहने को अभिशप्त हो जाएंगे। शायद ऐसे ही लोगों के लिए फिराक़ कह गए हैं कि ‘जो कामयाब हैं दुनिया में उन की क्या कहिए/है इस से बढ़ कर भले आदमी की क्या तौहीन!’

बहरहाल जब मैं पहली बार विष्णु प्रभाकर से मिला तो मन में उनके प्रति भावुक सी श्रद्धा हिलोरें मार रही थीं। मैं युवा था और आवारा मसीहा का नशा तारी था। वह लगभग मेरे पितामह की उम्र के थे, एक दोहरे जेनरेशन गैप की दूरी थी। पर उन्होंने जैसे क्षण भर में ही इस दूरी को भस्म कर दिया। मैं उन्हें झुक कर प्रणाम कर रहा था और वह ठठा कर हाथ मिला रहे थे। वह सब से ऐसा ही करते थे। दिल्ली के कनाट प्लेस में मोहन सिंह प्लेस के काफी हाउस में उन की उपस्थिति मात्र से तब भीड़ हो जाती थी। काफी हाउस के टेरेस पर उन की मेज़ के इर्दगिर्द कुर्सियों की जैसे बाढ़ सी आ जाती थी। उन की सरलता, सहजता और मोहक हो जाती जब वह चुपचाप किसी ‘नए’ को इस भाव से सुनने लगते जैसे जीवन की कोई महत्वपूर्ण निधि पा गए हों।

चिंतन-मनन और पर्यटन जैसे उनकी दिनचर्या थी। वह विशुद्ध गांधीवादी थे। जीवन में भी और रचना में भी। पर अपनी कहानियों को कभी गांधीवाद का प्रचार साहित्य नहीं बनने दिया। सिद्धांत और सपने में एक लंबी दूरी है जो वह अपनी कहानियों में अकसर पाट देते थे। उन का उपन्यास ‘कोई तो’ और उसकी नायिका वर्तिका इसका विलक्षण उदाहरण है। दरअसल विष्णु जी का समूचा जीवन लेखकीय अस्मिता की पहचान से सराबोर है। वह अपनी बातों से किसी को प्रभावित या आतंकित करने की कभी कोशिश नहीं करते थे। लेकिन उन के साथ कुछ अंतर्विरोध भी नत्थी थे। जैसे कि वह थे तो मूलतः कहानीकार। पर ज़्यादातर पाठ्यक्रमों में उनके नाटक पढ़ाए जाते थे। और कि पाठकों के विशाल वर्ग में जीवनीकार के रूप में जाने गए। शरतचंद्र चटर्जी की जीवनी आवारा मसीहा उनके यश के साथ ऐसे चिपकी कि उन की वह आजीवन पहचान बन गई। हालां कि विष्णु जी ने बंकिम चंद्र की जीवनी भी लिखी है और साथ ही भगत सिंह और सरदार बल्लभ भाई पटेल की भी। पर आवारा मसीहा की बात ही अनन्य है। बंगला के लेखक की जीवनी हिंदी में छपी और उसका अनुवाद न सिर्फ़ बंगला में बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं सहित दुनिया की अन्य भाषाओं में भी हुआ। यह आसान नहीं था। आज भी विष्णु प्रभाकर के नाम का डंका आवारा मसीहा के साथ ही बजता है। किसी लेखक ने किसी की जीवनी लिखने के लिए चौदह साल लगाए होंगे, मुझे अब तक नहीं मालूम। न सिर्फ़ इतना शरत बाबू की जीवनी लिखने के लिए खोज खातिर वह रंगून तक गए। पूरे देश की ख़ाक छानी। हिंदी में न तब संभव था, न अब। 1973 में इस का पहला संस्करण छपा था और अब तक जाने कितने संस्करण, जाने कितनी भाषाओं में छप गए कि इस का हिसाब-किताब कोई शोधार्थी ही लगा सकता है।

आवारा मसीहा के लेखक विष्णु प्रभाकर भी आवारा तबीयत के थे। निरंतर घूमते रहना जैसे उनकी प्रवृत्ति थी। उनके यात्रा वृत्तांत लगातार इसकी चुगली खाते हैं। लेकिन बतर्ज गालिब कौन जाए दिल्ली की गलियां छोड़ कर! वह दिल्ली छोड़ कर नहीं गए। अपनी मृत्यु के बाद भी। बताना ज़रूरी है कि उनकी देह उनकी इच्छा के मुताबिक उनके परिजनों ने एम्स को दे दी है। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी और जीवनी के अतिरिक्त उन्होंने निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, बाल साहित्य, अनुवाद तथा तमाम विविध विषयों पर ढेर सारा लिखा है। इतना सक्रिय लेखक हिंदी में तो शायद ही कोई और हो। लेकिन साथ ही यह भी जोड़ दूं कि इतना सक्रिय रहने के बावजूद इतना उपेक्षित भी शायद ही कोई और लेखक रहा हो। मुद्रा राक्षस शायद इसी लिए उन्हें प्रतियुयुत्सु कहते हैं। विष्णु प्रभाकर इतना सक्रिय रहने के बावजूद कभी बहुचर्चित नहीं रहे। तो यह उनका नहीं हिंदी का दुर्भाग्य था। विष्णु प्रभाकर जैसे अपनी सामान्य जिंदगी में पीढ़ियों का अंतराल नहीं आने देते थे, उनकी रचनाओं में भी पीढ़ियों का संक्रमण साफ दीखता है। जैसे वह अपने जीवन में नए लोगों से बढ़ कर हाथ मिलाते थे, अपनी कहानियों में भी इस सिद्धांत और स्वप्न को एक रखते थे। सिद्धांत और स्वप्न को एक साथ पिरोना चाहे जिंदगी में हो चाहे रचना में आसान नहीं होता। ऐसा करते मैं ने लखनऊ में अमृतलाल नागर को भी पाया। वह लपक कर नयों से हाथ तो नहीं मिलाते थे विष्णु जी की तरह लेकिन वह भी नयों का सत्कार खूब करते थे। कंधे से कंधा मिला कर। मुझे याद है जब मेरा पहला उपन्यास छपा था और उसे मैं नागर जी को देने चौक स्थित उनके घर गया था। यह उपन्यास उन्हीं  को समर्पित भी था। थोड़ी देर वह उपन्यास उलटते-पलटते रहे। मैं उन के सामने बैठा हुआ था। अचानक वह बैठे-बैठे उचके और अपनी बग़ल दिखाते हुए बड़े मनुहार से बोले, ‘यहां आओ! यहां बैठो!’ मैं ज़रा सकुचाते हुए गया। उन की बग़ल में बैठा। वह बिलकुल बच्चों की तरह मचल पड़े। मेरे कंधे से कंधा मिलाते हुए बोले, ‘जानते हो अब मेरे बराबर हो गए हो!’ मैं थोड़ा और सकुचाया तो वह बोले, ‘लजाओ नहीं कंधे से कंधा मिलाओ और लिखते रहो।’ खूब लिखो!’ और उन्होंने फिर कंधा मेरे कंधे से मिला दिया। मैं धन्य हो गया था। और सोचा कि बड़े लोग शायद ऐसे ही होते हैं। बनारस में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलने पर भी उनके इसी बड़प्पन और विनम्रता में मैं भींग गया था। और दिल्ली में विष्णु प्रभाकर ने अपने इसी बड़प्पन और विनम्रता की नदी में बार-बार नहलाया।

काफी हाउस में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो विष्णु जी को देखते ही मुंह बिचकाते कहते, ‘लो आज फिर उपदेश सुनना पड़ेगा।’ और उनके बैठने की दिशा से विपरीत दिशा में आंख बचाते हुए जा कर बैठ जाते। पर थोड़ी ही देर बाद वह लोग भी अकुलाए हुए विष्णु जी की मेज़ के इर्दगिर्द कुर्सी जमाने की जगह खोते दीख जाते। और अपनी खादी की कलफ लगी टोपी सीधी करते विष्णु जी उन लोगों की तरफ भी लपक कर हाथ बढ़ाते पूछते, ‘और कैसे हो?’ और लोग ही-ही कर के हंस पड़ते।

विष्णु जी के निधन की ख़बर सुन कर एकदम से काफी हाउस के ढेर सारे मंजर, ढेर सारी यादें और बातें याद आ गई। हमारे जैसे युवा तो उन्हें ही ढूंढ़ते वहां जाते। और उन के मिल जाने का मतलब होता था ढेर सारी बातें, ढेर सारे लोगों का हालचाल, उन की यात्राओं के विवरण और तमाम बातें। दिल्ली जैसी व्यर्थ की भाग दौड़ वाली जिं़दगी में लोग आते ही जाने की तैयारी में लग जाते हैं। मिलते ही भागने लगते हैं। गोया मिलने नहीं कबड्डी खेलने आए हों। पर विष्णु जी ऐसे मिलते जैसे कितनी फुर्सत में हों। और उन से मिलने का एक प्रसाद यह भी होता था कि काफी हाउस से अजमेरी गेट उनके घर के पास तक उन के साथ पैदल ही आना। और वह हमें बस पकड़ा कर ही अपनी घर की ओर मुड़ते। उन दिनों कनाट प्लेस में इतनी टैªफिक नहीं थी न ही भूमिगत पार पथ थे। कनाटिंग करना भी तब एक जुनून था। उन्हीं दिनों मैंने रीगल के पास वाले गांधी आश्रम से कोल्हापुरी चप्पल खरीदी थी। चप्पल इतनी कड़ी थी कि विष्णु जी के साथ अजमेरी गेट तक पैदल चलने में एड़ियां बिलकुल पंचर हो जाती थीं। एक शाम अजमेरी गेट तक पहुंचने के बाद वह मेरा कंधा पकड़ कर बोले, ‘ऐसा करो तुम यह चप्पल बदल दो।’

‘क्यों?’ मैंने सकुचा कर पूछा तो वह बोले, ‘तुम्हें इस तरह चलते देख कर तकलीफ होती है।’ दूसरों की तकलीफ समझना और उसे भावनाओं की पाग में डालना विष्णु जी की जैसे फ़ितरत थी। उन्हीं दिनों उन्हों ने अपनी पत्नी के निधन पर एक संस्मरण लिखा था। तमाम प्रतिक्रियाएं आई थीं। एक महिला ने उन्हें चिट्ठी में लिखा था, ‘ऐसा कोई मेरे लिए लिखे तो मैं तो अभी मरने के लिए तैयार हूं।’ तो ऐसे भावुक भी थे विष्णु जी। वह अपने लिखने के बारे में कहते थे, ‘प्रत्येक मनुष्य दूसरे के प्रति उत्तरदायी है, यही सबसे बड़ा बंधन है और यह प्रेम का बंधन है।’ साथ ही वह दिनकर को कोट करते हुए कहते थे:

पर जब तक जियूं वीणा सुर में बोलती रहे।
वह मेरा ही नहीं, सब का दर्द खोलती रहे।।

सबका दर्द खोलने वाली विष्णु प्रभाकर नाम की यह वीणा अब हम से बिला गई है। इस वीणा को शत्-शत् प्रणाम!

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