Thursday 6 June 2013

मेरी कविता के दिन !

मित्रो, यह फ़ोटो १९७९-८० की है। तब की जब मैं कविताएं लिखता था। कहानी जैसे मन में अंकुआ रही थी। इस लिए भी कि जो बातें जीवन और समाज में घट रही थीं, उन्हें कहने के लिए कविता का कैनवस नाकाफी जान पड़ रहा था। वैसे भी कविता, कवि सम्मेलनी कविता, भड़ैती में निसार हो रही थी और छपी कविता दुरुहता की खोह में समा रही थी, या नारेबाज़ी, पोस्टरबाज़ी में कुर्बान हो कर जनता से दूर जा रही थी। यह बीमारी कविता के साथ-साथ कहानी और उपन्यास में भी घुल रही थी। पर कहानी कविता के मृत्यु-पाठ से फिर भी दूर थी। और आज देखिए न कि कविता की क्या गति बना दी है हमारे कवियों ने? कि कविता तो अब जनता के लिए रही ही नहीं। प्रकाशक भी पैसा ले कर कविता छापने लगे। यह भी अब अतीत की बात हो गई है। अब तो कविता के नाम पर सिर्फ़ भड़ैती रह गई है या माऊथ कमिशनरी। मतलब लफ़्फ़ाज़ी ! अच्छी कविता तो अब दुइज का चांद हो गई है जो कभी-कभी ही पढ़ने या सुनने को मिलती है। और बताऊं कि बावजूद इस सब के जीवन में लय और ऊर्जा अब भी कविता ही से मिलती है। भले ही मैं ने कविता लिखना तीन दशक पहले छोड़ दिया है।
इस लिए कि अच्छी कविता, पढ़ते या सुनते ही जुबान पर चढ जाने वाली कविता मैं भी तब नहीं लिख रहा था। तो भी यह फ़ोटो जब आज मिली तो वह अपनी कविताई के दिन बड़ी शिद्दत से याद आ गए। वह पहले और दूसरे प्रेम के पाठ में लिखी जाने वाली कविता के दिन भी। डा. सुरेश के गीत में जो कहूं कि सोने के दिन, चांदी के दिन आए गए आंधी के दिन ! तो ऐसे ही कुछ थे मेरी कविता के दिन ! बुद्धिनाथ मिश्र के गीत की याद करते हुए कहूं तो ये तुम्हारी कोंपलों सी नर्म बाहें और मेरे गुलमोहर से दिन ! के दिन थे। बुद्धिनाथ जी तो तब गाते थे एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो ! और यहां बिना जाल के ही मछुवारे बने घूमते गाते फिरते थे। दुष्यंत को भी गाते फिरते कि एक जंगल है तेरी आंखों में मैं जहां राह भूल जाता हूं। दुष्यंत सुलगते भी थे मन में एक चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए और धूमिल भी मचलते रहते थे यह पूछते हुए कि एक आदमी रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी सेंकता है/ एक आदमी रोटी से खेलता है/ मैं पूछता हूं कि/ यह तीसरा आदमी कौन है/ मेरे देश की संसद मौन है ! मुक्तिबोध की साहित्यिक की डायरी की छांव में पूछते ही रहते थे कि मर गया देश, जीवित रहे तुम ! और सनकाते ही रहते थे कि कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई ! वह सचमुच कविता ही के दिन थे ! हां, अब कहानी के दिन हैं। उपन्यास के दिन हैं। वो सोने के दिन और चांदी के दिन आंधी की तरह विदा हो गए हैं। वो मेरी कविता के दिन ! साइकिल चलाते हुए सोम ठाकुर का वह गीत गुहराते हुए गाना कि, जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम ! वह गुहराने और गुनगुनाने के दिन ! ऐसे क्या फिर-फिर लौटेंगे वे दिन? याद आते हैं वे दिन माहेश्वर तिवारी के उस गीत की तरह कि,  याद तुम्हारी आई जैसे कंचन कलश भरे, जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे ! मन में तो कविता अब भी अंकुआती फिरती है ! फिर कविता लिखने का मन करता है। उन दिनों को गुहराने और मनुहारने को मन करता है। क्या मैं फिर कविता लिख पाऊंगा? अच्छी कविता जो पढ़ते ही , सुनते ही जुबान पर चढ़ जाए। मन को भिंगो जाए ! सुलगा जाए ! जैसे कबीर की  कविता।

Saturday 1 June 2013

तो क्या राजीव शुक्ला आंख में धूल झोंकने में फिर कामयाब हो जाएंगे?

दयानंद पांडेय 

तो क्या राजीव शुक्ला अपने को फिर मैनेज कर ले जाएंगे? आंख में धूल झोंकने में फिर कामयाब हो जाएंगे? जैसी कि उन की किस्मत और आदत में शुमार है। कहना बहुत मुश्किल है। हालां कि राजनीतिक पंडित अनुमानबाज़ी कर रहे हैं कि बी.सी.सी.आई के चेयरमैन श्रीनिवासन का सिंहासन हिलने के बाद अपने राजीव शुक्ला का मंत्री पद भी स्वाहा हो जाएगा। आई. पी. एल. कमिश्नर वह  नहीं रहेंगे ऐसा ऐलान करते-करते वह अब इस्तीफ़ा भी दे ही चुके हैं। तो क्या वह सचमुच आंख में धूल झोंक रहे हैं यह इस्तीफ़ा दे कर?  जो भी हो राजीव शुक्ला के चेहरे पर तनाव की इबारत साफ पढ़ी जा सकती है।   इस लिए भी कि दलाली में अमर सिंह के कभी कान काटने वाले राजीव शुक्ला अब एक साथ कई मामलों में फंसने जा रहे हैं। पवन बंसल, सुरेश कलमाड़ी वगैरह पर तो सिर्फ़ भ्रष्टाचार आदि ही के बादल हैं पर राजीव शुक्ला पर तो यह और ऐसे तमाम मामलों को ले कर समूचा मानसून ही न्यौछावर होने जा रहा है।

खबर है कि राजीव शुक्ला पर न सिर्फ़ मैच फ़िक्सिंग की तेज़ बौछारें पड़ेंगी बल्कि दलाली से कमाई गई संपत्तियों की भी छानबीन होगी। आखिर वह ऐसा कौन सा उद्योग चलाते हैं जो अरबों की संपत्ति के मालिक बन बैठे हैं? यह सवाल भी सुलग चुका है। राजनीति और खेल का घालमेल न करने संबंधी मनमोहन सिंह के बयान की रोशनी में राजीव शुक्ला की कारगुज़ारियों को भी पढ़ने वाले पढ़ रहे हैं। हालां कि शरद पवार के पंख भी इस बयान की आंच में झुलसे हैं।
जैसे श्रीनिवासन लाख बेशर्मी और हेकड़ी दिखाएं, उन की बेहयाई का सीमेंट अब काम आने वाला है नहीं। ठीक वैसे ही राजीव शुक्ला का भी सारा मैनेजमेंट अब मैनेज होने से पानी मांग गया है। सोनिया गांधी और राहुल उन से पहले ही से हिट लिस्ट में डाले हुए हैं प्रियंका और शाहरुख फ़ैक्टर भी अब उन के गले की फांस बन चला है। गौरतलब है कि कभी अमिताभ बच्चन के पांव दबाने वाले राजीव शुक्ला जब राजीव गांधी की हत्या हुई थी तब अमिताभ की मिज़ाज़पुर्सी में सोनिया को इटली उड़ाने की कयास भरी खबरें अखबारों में प्लांट कर रहे थे। क्यों कि अमिताभ बच्चन के संबंध तब के समय तक सोनिया से बेहद खराब हो चले थे। बाद में तो वह खुद को रंक और सोनिया को राजा कह कर वार करने लग गए थे। दरअसल दोनों का ईगो राजीव गांधी के जीते जी ही क्लैश कर गया था। तब जब कि एक समय वह भी था कि जब राजीव -सोनिया के प्यार को ले कर इंदिरा गांधी भी विरोध में थीं। लेकिन अमिताभ ने तब बाल सखा होने की बिना पर राजीव-सोनिया का न सिर्फ़ साथ दिया बल्कि जब सोनिया को ले कर राजीव भारत आए तो दिल्ली एयरपोर्ट पर उन्हें रिसीव करने सुबह-सुबह अकेले अमिताभ बच्चन ही मौजूद थे। न सिर्फ़ एयरपोर्ट पर उन्हें रिसीव किया बल्कि अपने घर लाए। तेजी बच्चन ने सोनिया को न सिर्फ़ शरण दी बल्कि साड़ी पहनने से ले कर तमाम भारतीय तौर तरीके भी सिखाए सोनिया को। इंदिरा गांधी को मनाया और शादी करवाई। यह सब बच्चन परिवार ने मिल-जुल कर किया। राजीव और अमिताभ की दोस्ती और प्रगाढ़ हो गई। संबंध इतना घना हुआ कि राजीव के बच्चे भी तेजी बच्चन के साथ ही समय गुज़ारते। प्रियंका गांधी तो आज भी जब तब यह कहते नहीं अघातीं कि उन की हिंदी अगर इतनी अच्छी है तो तेजी बच्चन के चलते है। उन्हों ने ही हिंदी सिखाई। सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। कि इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। राजीव को सिंहासन संभालना पड़ा। अमिताभ भी बाल सखा  की मदद खातिर राजनीति में कूद पड़े। पर वो कहते हैं न कि हाय गज़ब कहीं तारा टूटा ! तो अमिताभ इलाहाबाद से सांसद क्या हुए, यह इलाहाबाद ही उन के गले की फांस बन गया।

वह विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीति के फंदे में आ गए। दोनों के अहंकार और हेकड़ी आमने-सामने आ गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब दस्यु उन्मूलन के फेर में इटावा बेल्ट में पिछड़ी जाति के कई नेताओं और उन के चेले चपाटों को चहेटे पड़े थे। उसी चपेट में मुलायम सिंह यादव और उन के तमाम लोग आए। मुलायम की भी कभी हिस्ट्रीशीट थी। इंडियन एक्सप्रेस ने छापी भी थी। पर चौधरी चरण सिंह की शरण में जा कर मुलायम बचते रहे। फ़ूलन ने बेहमई कांड कर दिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ गया था मुख्यमंत्री पद से तब। खैर मुलायम की जान बची। पर वह विश्वनाथ प्रताप सिंह के हमले नहीं भूले।  आज तक नहीं भूले। तो उन्हों ने उन के खिलाफ़ डहिया ट्रस्ट का मामला निकाला। दिल्ली के अखबारों में तमाम प्रयास के बाद भी नहीं छपा। साइक्लोस्टाइल करवा कर बंटवा दिया। राजीव शुक्ला तब कोलकाता से प्रकाशित रविवार के नए-नए विशेष संवाददाता हुए थे। उदयन शर्मा की कप्तानी में दनादन बल्लेबाज़ी कर रहे थे। सिक्सर पर सिक्सर मार रहे थे। गरज यह कि पत्रकारिता में फ़िक्सिंग का फन फैला रहे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह के डहिया ट्रस्ट की खबर को उन्हों ने इसी फिक्सिंग के फन में समेटा और रविवार की कवर स्टोरी बना कर छाप बैठे। तब  कि जब राजीव शुक्ला लखनऊ में थे दैनिक जागरण में तब वह इन्हीं राजा साहब यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह के ताबेदार थे। उन की कोर्निश बजाया करते थे। लेकिन मुलायम ने जाने क्या सुंघाया कि राजीव राजा साहब के पाले से पलटी मार गए। उन्हें मुलायम के धोबियापाट में घेर बैठे। चरखा दांव भी चले लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह को चित्त नहीं कर पाए। इस लिए भी कि डहिया ट्रस्ट के आरोपों में कुछ दम था ही नहीं। बासी मामला था। पहले भी उत्तर प्रदेश विधान सभा में गूंज चुका था। जांच वगैरह की नौटंकी हो चुकी थी। जो हो लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह से खार खाए अमिताभ बच्चन को लगा कि राजीव शुक्ला तो बड़े काम का आदमी है। बुलवा लिया। पुचकारा और राजीव गांधी से मिलवाया। बाल सखा की बात थी, विश्वनाथ प्रताप सिंह को निपटाने की बात थी सो राजीव गांधी ने भी राजीव शुक्ला को घास डाल दी। न सिर्फ़ घास डाली बल्कि अपनी अंतरंग रही अनुराधा प्रसाद से भी मिलवा दिया। बात बहुत आगे पहुंच गई।
'आशीर्वाद ' दे कर शादी भी करवा दी। अब राजीव शुक्ला की बल्ले-बल्ले हो गई। उन के पुराने मित्र उन की दिन दूनी, रात चौगुनी सफलता देख कर भकुवा-भकुवा जाते। पर जानने वाले जानते थे कि राजीव शुक्ला की पांचो अंगुली घी में है और सर कड़ाही में। पर मसोस कर रह जाते। कुछ कह नहीं पाते। पर तभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफ़ोर्स का घड़ा फोड़ दिया। बोफ़ोर्स में राजीव गांधी बह बिला गए। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो गए। अमर बनने के चक्कर में मंडल का दांव चले। कमंडल ने पटक दिया। सरकार से गए। चंद्रशेखर आए। राजीव की हत्या हो गई। अब बाल सखा अमिताभ की ईगो फंस गई  सोनिया से। खदबदाहट पहले ही से थी। बातें कई थीं। अमिताभ राजनीति भले छोड़ चुके थे, ईगो नहीं छोड़ा था। सोनिया को इटली उड़ाने लगे। बरास्ता राजीव शुक्ला। खैर सोनिया चली गईं परदे के पीछे। नरसिंहा राव वगैरह हुए। लोग आए गए। राजीव शुक्ला भी सिक्सर मारते हुए अचानक राजनीति में लैंड कर गए बरास्ता नरेश अग्रवाल। राज्य सभा में रिकार्ड वोटों से जीत दर्ज की। भाजपा विधायकों के वोट के दम पर। तब शायद भाजपा में राजीव शुक्ला को सांप्रदायिक बू नहीं मिली । गो कि वह 'सेक्यूलर' होने की चाह में तब भी थे। अब अलग बात है कि 'सेक्यूलर' की हुंकार भरने वाले तमाम-तमाम लोग भाजपा की सांस पर ही आला कुर्सी तक पहुंचे हैं अब तक। मुलायम सिंह यादव १९७७ में जब पहली बार रामनरेश यादव मंत्रिमंडल में मंत्री बने तो जनसंघ के लोग भी कल्याण सिंह समेत उस जनता सरकार में थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह जब प्रधानमंत्री बने १९८९ में  तो भाजपा के ही समर्थन से। मुलायम सिंह यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने १९८९ में तो भाजपा ही के समर्थन से। तो अपने सेक्यूलर राजीव शुक्ला भी भाजपा विधायकों  के वोट से ही पहली बार राज्य सभा पहुंचे। दिलचस्प यह भी कि भाजपा के अधिकृत उम्मीदवारों से ज़्यादा वोट मिले थे राजीव शुक्ला को। तो नरेश अग्रवाल का भी यह कमाल था। कहते हैं कि अंबानी की तिजोरी का भी रसूख तब चला था। खैर राजीव शुक्ला जल्दी ही नरेश को भी धता बता गए। नरेश अग्रवाल अपनी पार्टी की मीट बुलाए थे हरिद्वार में। राजनाथ सिंह ने उन्हें मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया। तनातनी पहले से चल रही थी। पर बर्खास्तगी की खबर मिलते ही राजीव ने सिराज़ मेंहदी को साथ लिया और हरिद्वार से कूच कर गए। नरेश अग्रवाल से औपचारिक रुप से मिले भी नहीं। दिल्ली लौट कर राजीव गांधी वाले संपर्कों को खंगाला। जल्दी ही वह कांग्रेस में दिखे। राज्यसभा सदस्यता कांग्रेस में भी बरकरार रही। अब की वह महाराष्ट्र से प्रतिनिधित्व करने लगे। अब वह प्रियंका की सेवा-टहल में लग गए थे। उन के बच्चों के पोतड़े बदलने लगे। प्रियंका की हर ख्वाहिश का, खांसी-जुकाम का, हर चाहत का वह खयाल रखने लगे। प्रियंका  के वह चेतक बन गए। इसी फेर में प्रियंका की नज़र शाहरुख खान पर चली गई तो यह देखिए राजीव शाहरुख के खास दोस्त बन गए। अमिताभ को तो वह कब का किनारे कर चुके थे। वैसे भी अमिताभ के पास अब अमर सिंह आ गए थे। तो अमिताभ-अमर सिंह-जयप्रदा और प्रियंका-शाहरुख-राजीव  के दिन थे अब। सोनिया और राहुल ने इसे ठीक नहीं माना। फिर भी राजीव चलते रहे। न्यूज़ २४ वगैरह का कारोबार भी शुरु हो गया। क्रिकेट में भी उन की दिलचस्पी बढ गई। पता चला वह मैनेजर हो गए हैं क्रिकेट टीम के। फिर तो वह कब राजनीति खेल रहे हैं और कब क्रिकेट पता करना मुश्किल होने लगा उन की अर्धांगिनी अनुराधा प्रसाद को भी। बाकी लोगों की क्या बिसात। पर सब कुछ के बावजूद उन की असल इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी मंत्री बनने की। प्रियंका की सारी तज़वीज़, तावीज़ और प्रयास के बावजूद। इसी बीच उन्हों ने राज्यसभा में जब अपनी व्यक्तिगत  संपत्ति घोषित की सौ करोड़ की तो मैं चकरा गया। चकरा गया कि यह कानपुर का पत्रकार कौन सा व्यापार कर रहा है आखिर? सोचने लगा कि यह तो घोषित है। बेनामी कितनी होगी? तभी इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट याद आ गई। तब के दिनों अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, सोनिया गांधी नेता प्रतिपक्ष। और राजीव शुक्ला उन दिनों ज़ी टी.वी पर रुबरु पेश करते थे हर हफ़्ते, अनुराधा प्रसाद के नेतृत्व में।

इंडिया टुडे में वह रिपोर्ट  राजीव शुक्ला पर केंद्रित थी। स्टोरी में राजीव शुक्ला का गुणगान करते हुए लिखा गया था कि वह अब अमर सिंह से भी बड़े पावर ब्रोकर हैं। और कि अगर वह चाहें तो अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया से एक साथ किसी को मिलवा सकते हैं। बल्कि इसी तरह की तमाम निगेटिव सूचनाओं से भरी पड़ी थी यह रिपोर्ट। मैं यह पढ़ कर बड़े अचरज में पड़ गया। इंडिया टुडे में मेरे तब कई मित्र थे जिन के साथ जनसत्ता में हम काम कर चुके थे। राजी्व शुक्ला भी जनसता में तब हम सब के साथ काम करते थे। तो इस बिना पर एक मित्र को फ़ोन कर मैं ने पूछा कि यह रिपोर्ट आप लोगों ने छापी है, राजीव शुक्ला ने इस का बुरा नहीं माना? कोई ऐतराज नहीं जताया? यह सुन कर मित्र हंसने लगे। मैं ने पूछा कि हंस क्यों रहे हैं? तो वह मित्र कहने लगे कि दुनिया अब बहुत बदल चुकी है। और हंसते हुए ही उन्हों ने कहा कि, 'ऐतराज?' वह रुके और बोले, 'यह सब राजीव शुक्ला ने कह कर छपवाया है !' मैं अवाक रह गया। बड़ी मुश्किल से पूछ पाया , 'क्या?' मित्र बोले, 'हां। इस से उस की दलाली की दुकान और चल जाएगी।' और अब देखिए न कि दुकान और दलाली ऐसी चली है राजीव शुक्ला की बड़े-बड़े श्रीनिवासन, शरद पवार और ललित मोदी उन से पानी मांगें।

सोचिए कि कितना करामाती है अपना मित्र राजीव शुक्ला। कि आई.पी.एल. का कमिश्नर पट्ठा खुद रहा। फ़िक्सिंग, स्पाट फ़िक्सिंग भी आई.पी.एल. में हुई है और बहस सारी की सारी इधर-उधर की है। सिंहासन भी डोला है तो श्रीनिवासन का। राजीव शुक्ला का नहीं। लोग पिल पड़े हैं लोटा-थाली ले कर श्रीनिवासन के पीछे। पर वो भी पट्ठा सीमेंट से मज़बूत बेशर्म है। हेकड़ी देखिए कि कह रहा है कि इस्तीफ़ा नहीं दूंगा। पर अपने भाई राजीव शुक्ला से तो कोई यह पूछने वाला भी नहीं था कि यार तू कब दे रहा है इस्तीफ़ा? कि सीधा जेल ही जा कर देगा? वो तो मनमोहन सिंह के एक बयान ने  कि राजनीति और खेल का घालमेल ठीक नही है, राजीव शुक्ला को सकते में डाल दिया। उन्हें आई.पी.एल. से इस्तीफ़ा दे देने में ही कल्याण दिखा। पर सच तो यह है कि उन की मत्री की कुर्सी पर भी अब आंच आ गई है। पुलिसिया जांच अगर ठीक लाइन पर हो तो राजीव के खिलाफ़ सुबूत बहुतेरे हैं। इतने कि उन्हें सींखचों के पीछे भेजने में कोई दिक्कत नहीं होगी। न सिर्फ़ क्रिकेट के बाबत बल्कि  बाकी मामले भी क्यों नहीं खोले जाएं? और जो चौटाला की संपत्ति ज़ब्त कर सकती है सरकार तो राजीव शुक्ला की भी क्यों नही? वह कौन दूध के धोए हैं? देर सबेर शाहरुख खान तक भी फ़िक्सिंग की आंच आनी ही आनी है। और आए या नहीं यह क्रिकेट की आड़ में पैसे की लूट कैसे होने दी गई। राजीव कह रहे हैं कि आई.पी.एल. के बाद उन का काम अब नहीं रह गया है इस लिए इस्तीफ़ा दे रहे हैं। तो यह बात प्रधानमंत्री के बयान के बाद ही क्यों खत्म हुआ? और जो कीर्ति आज़ाद कह रहे हैं कि यह तो आंख में धूल झोंकने का काम है। आई.पी.एल के बाद उन की ज़रुरत नहीं रह गई थी। उन्हें तो बी.सी.आई. के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना चाहिए था। क्यों की न सिर्फ़ श्रीनिवासन बल्कि समूची बी.सी.सी.आई. कठघरे में है। सब को इस्तीफ़ा देना चाहिए।

पर सवाल है कि क्या जांच भी निष्पक्ष होगी भला? ललित मोदी के मामले में अब तक कुछ हुआ नहीं । न होने की कोई उम्मीद दिखती है। सरकार इतनी लाचार और हताश क्यों है? ललित मोदी और राजीव शुक्ला जैसे लोग  सिस्टम के आगे इतने बड़े कैसे हो जाते हैं कि सिस्टम बौना पड़ जाता है। यह ज़रुर सोचा जाना चाहिए। राजीव शुक्ला या अमर सिंह जैसे दलाल आखिर कैसे राजनीति, कारपोरेट , क्रिकेट और सिनेमा के सिरमौर बन जाते हैं? उन की ज़रुरत बन कर अपनी नायक की छवि बनाने लग जाते हैं? यह और ऐसे सवालों से रुबरु होने का मौका अब आ गया है। वैसे अब यह देखना भी दिलचस्प हो गया है कि राजीव शुक्ला का नया गेम क्या होगा? श्रीनिवासन का इस्तीफ़ा अब निश्चित है। सवाल फिर दुहरा रहा हूं तो क्या राजीव शुक्ला अपने को फिर मैनेज कर ले जाएंगे? आंख में धूल झोंकने में फिर कामयाब हो जाएंगे? जैसी कि उन की किस्मत और आदत में शुमार है।

मौकापरस्ती, धोखा और बेशर्मी जैसे शब्द भी राजीव शुक्ला से शर्मा जाएंगे