Saturday 11 October 2014

डिप्रेशन , फ्रस्ट्रेशन और गुस्से का मारा संजय हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति की कुर्सी के सामने मूत आता है



  [ शन्नो अग्रवाल कोई पेशेवर आलोचक नहीं हैं । बल्कि एक दुर्लभ और सुगढ़ पाठिका हैं । कोई आलोचकीय चश्मा या किसी आलोचकीय शब्दावली, शिल्प और व्यंजना या किसी आलोचकीय पाठ से बहुत दूर उन की निश्छल टिप्पणियां पाठक और लेखक के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाती हैं । शन्नो जी इस या उस खेमे से जुडी हुई भी नहीं हैं । यू के में रहती हैं, गृहिणी हैं और सरोकारनामा पर यह और ऐसी बाक़ी रचनाएं पढ़ कर अपनी भावुक और बेबाक टिप्पणियां अविकल भाव से लिख भेजती हैं ।  ]


 शन्नो अग्रवाल   

मीडिया में रहने वाले लोगों की जिंदगी अन्य लोगों को आकर्षित करती है किंतु इस में काम करने वालों को अपनी जीविका कमाने के लिए जिन गलियारों से गुज़रना पड़ता है उस की त्रासदी व घिनौनापन यही लोग जानते हैं l थिएटर लाइफ और ड्रामा स्कूल के वाकयों पर रिपोर्ट लिखने वाले एक रिपोर्टर संजय से शुरुआत होने वाले इस उपन्यास अपने-अपने युद्ध में मीडिया और न्यायपालिका का खुला नरक , कई और सामजिक , सियासी मसलों पर चुभते हुए सवालों के साथ समकालीन लेखकों, कवियों, शायरों और रिपोर्टरों की जिंदगी का नक्शा भी खींचा गया है l इंटरव्यू के सिलसिले में संजय जहां भी जाता है वहां भी लोगों का चरित्र और नैतिकता सब बिखरे से नज़र आते हैं l हर कोई अपने जीवन के उंच-नीच को झेलते हुए अपने-अपने युद्ध में रत दिखता है l दयानंद जी ने संजय की आंखों से जो भी दिखाया है वह एक भद्दी और घिनौनी दुनिया है जिसे सोच कर मन कांप उठता है l संजय खुद भी एक इंटेलीजेंट और ज़िम्मेदार पत्रकार होते हुए कई नवयुवतियों से शारीरिक संबंधों में उलझा रहता है l अखबारी दुनिया की पोल सब की आंखें खोलती है l कितनी धांधलेबाज़ी  होती है कि कभी हिंदी अखबार में अंग्रेजी अख़बारों की ख़बरों का अनुवाद छपता है  तो कभी मीडिया जो किसी को पब्लिक की आंखों में उठा सकती है वही अपने व्यवसाई ढंग से पेश आ कर किसी पर झूठे और गंदे इल्जाम भी लगा सकती है l या कोई खास खबर न मिलने पर रिपोर्टर खबरों की 'जलेबी' भी बना सकते हैं यानि रिपोर्टर मनगढंत खबरें भी लिख देते हैं l ये तो रही मीडिया की पावर l और जो संपादक हैं वो सम्राट बने बैठे हैं l अब अखबारों में खबरें मुफ्त में नहीं छापी जातीं l रिपोर्टर की लाई हुई किसी भी खबर को संपादक की अनुमति के बिना नहीं छापा जा सकता l संपादक चाहे तो उस में  हेर-फेर कर सकता है l उसे प्रतिष्ठित लोगों और राजनीति से संबंधित मुद्दों की ख़बरों के बारे में विचार करना पड़ता है l कि कहीं कई बार सचाई छापने से उन को खुद न नुकसान झेलना पड़े l ये दुनिया दूध की धुली नहीं है l दूसरों की अनैतिकता की बातें करने वाले खुद भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी में फंसे हुए हैं l वही बात कि खुद के घर में शीशे की दीवारें होते हुए भी लोग दूसरों की आलोचना करते हैं l


सामाजिक ढांचा बदलने के साथ लोगों की मानसिकता भी बदल चुकी है l इंसान की मानसिक और शारीरिक भूख ने उसे कितना गिरा दिया है कि वह दूसरों की परवाह नहीं करता l दुनिया में हर किसी को अपनी ही पड़ी हैl अपनी जीविका के लिए , अपनी भूख मिटाने के लिए कौन किस का शिकार बनता है, किस का नुकसान होता है और किस का फ़ायदा इस की कोई परवाह नहीं करता l चाहे वह पति हो, मित्र हो या गुरु सब ही जैसे इंसान से हैवान हुए जा रहे हैं l पत्रकारिता में होते हुए लोग कवि या शायर भी बन जाते हैं l और उन के अधिकतर संगी साथी भी पत्रकार, कवि, शायर या लेखक ही होते हैं l पत्रकारों की दुनिया कुछ अलग ही है l इन की तनाव भरी जिंदगी में शराब, सिगरेट व सेक्स बहुत ही साधारण चीजें हो जाती हैं l अगर इन सब की लत ना भी हो तो भी ये लोग और लोगों के संपर्क में आ कर या फिल्मे देख कर सीख लेते हैं l संजय भी कोई अपवाद नहीं जो खुद एक रिपोर्टर है l एक बात और कि दूर के ढोल सभी को सुहावने लगते हैं l पर कवि सम्मेलनो और मुशायरों में जाने वाले लोगों की कैसी छीछालेदर होती है इस उपन्यास को पढ़ते हुए और अच्छी तरह समझ में आता है l जिसे ये अंदरूनी बात ना पता हो तो ऐसे सम्मेलनों में जा कर उस की आंखें खुल जाती हैं l कुछ लोग वहां टाइम पास करने जाते हैं और कुछ लोग किसी के पाठ से बोर हो कर वहां से सरक लेते हैं l हर कवि अपनी रचना पूरे जोश से पढ़ने के लिए बेताब रहता है और उस पर वाहवाही पाना चाहता है पर किसी नए कवि की रचना की तारीफ़ करने में उन की हेठी हो जाती है l कई बार आयोजक की तरफ से धोखा मिलता है तो वहां आए सभी कवियों की आफत आ जाती है l रिपोर्टर अपना काम करते हुए कितना अपमानित होता है यह हर समय आभासित होता है l और ये रिपोर्टर भी न जाने किस मिट्टी के बने होते हैं जो बार-बार एक मुद्दे पर कई लोगों से इंटरव्यू लेते रहते हैं और फिर मुंह की खा कर भी अपने काम को बेशर्मी से करते रहते हैं l इन रिपोर्टरों की लाइफ कितनी अपमान भरी होती है l जैसे कि ड्रामा स्कूल के एक ट्रस्टी का इंटरव्यू लिए जाने पर वह अपने समय को इतना मूल्यवान समझते हैं कि संजय के संपादक से पच्चीस हज़ार रूपए फीस का ज़िक्र कर बैठते हैं l समय कितना बदल गया है कि अब लोगों के लिये पश्चिमी सभ्यता वाला कथन 'समय पैसा है' वाली बात कहना आम हो गया है l लेकिन यह कोई नहीं सोचता कि रिपोर्टर को भी कुछ मिनट के इंटरव्यू के लिये कभी-कभी घंटों इंतजार करना पड़ता हैl तो उस के समय की कितनी कीमत होनी चाहिए ? लेकिन कई बार ये रिपोर्टर भी कम नहीं होते l सही रिपोर्ट हो या गलत कई बार ये लोग झूठ को सच और सच को झूठ लिख कर किसी को ऊंचा उठा सकते है तो किसी को नीचे भी गिरा सकते हैं l


संजय भी यही करता है जब वह नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के कई छात्रों की आत्म हत्या के पीछे के राज को जानने के लिए इंटरव्यू में सफल नहीं होता l  कई बार रिपोर्टर जब किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का इंटरव्यू कर के उसकी असलियत लिखता है तो संपादक उसे छापने की अनुमति नहीं देता कि कहीं उस व्यक्ति की छवि ना खराब हो जाए जो उन के अपने प्रोफेशन को खतरे में डाल दे l 'अपने-अपने युद्ध' में हर कोई दूसरों के साथ होते हुए भी अपनी समस्यायों और संघर्षों को खुद झेल रहा है l सब की अपनी निजी जिंदगी है l दूसरों के सुख-दुख, सुविधा-असुविधा से किसी को कोई सरोकार नहीं l क्या वाकई में दुनिया इतनी संवेदनहीन हो गई है? यहां  लोग दूसरों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं l पूरब और पश्चिम की सभ्यता का भेद जैसे मिट रहा है l अब गुरु और शिष्या के पावन संबंध पहले से नहीं रह गए  l  संगीत या नृत्य की शिक्षा देते हुए गुरुओं की लोलुप आंखें शिष्याओं के शरीर को लीलती रहती हैं और उन के शरीर का भोग लगाने का मौक़ा ढूंढते रहते हैं जैसा कि अलका के संग होता है l कभी-कभी शादी करने के पहले ही पति-पत्नी किसी और के हो चुके होते हैं l वह मजबूरी में एक दूसरे के वर्तमान या अतीत में हुई इस तरह की बातों को इग्नोर करते रहते हैं l एक मित्र भी अपने मित्र की वाइफ को मन से भाभी ना स्वीकार कर के उसके शरीर पर नज़र रखता है l जैसे कि संजय जब अजय और अलका से मिलने जाता है तो वहां दोस्त की अनुपस्थिति में संजय की आंखें अलका के शरीर को टटोलती रहती हैं l  ये वो दुनिया है जहां एक औरत अपना पेट भरने के लिए  किसी पर पुरुष की पहले हो जाती है l जिधर देखो नैतिकता का खंडन करते दुर्व्यसन में लिप्त लोग नज़र आते हैं l  उपन्यास पढ़ते हुए दुनिया का और घिनौना रूप देखने को मिलता है l फ़िल्म , साहित्य, मीडिया, रेडियो, दूरदर्शन, आदि से जुड़े लोगों के अंदरूनी जीवन का नंगा सच उभरने लगता है l इस उपन्यास में पत्रकारों की जिंदगी की हकीकत, उन की मजबूरियां, पेट की भूख, उन के अश्लील और संवेदनशील जीवन की झलक मिलती है l पैसे और शोहरत के पीछे छुपी है कुछ लोगों की बेबसी l जहां कुछ इंसानों का वहशीपन ठहाके लगाता है और बाक़ी लोग कठपुतली बने रहते हैं l अपनी-अपनी मजबूरियों से लोग अभिशप्त हैं l कभी-कभी उपन्यास में कई जगह पात्रों के द्वारा अश्लील शब्दों का प्रयोग हुआ है पर शायद ये उन लोगों की अश्लीलता और उन की अभद्रता का चित्रण खींचने में सहायक है l ये गालियां उन की मानसिकता व उन के चरित्र को उभारतीं हैं और पाठकों के सामने उन का सलूक पेश करती हैं l  लोग अब पहले जैसे लोगों की तरह भजन-कीर्तन या उपदेश सुनते हुए अपना समय नहीं काटते l बल्कि खाली समय में दिन भर की थकान मिटाने के लिए  सिनेमा या काफी हाउसों में जाते हैं या किसी मित्र के साथ गप्प लगाते हैं।


और जब मित्रों की बीवियों से मिलते हैं तो वो लक्ष्मण बन कर नहीं जाते l उन की भावनाओं में खोटापन झलकता है l संजय का चरित्र इस का एक उदाहरण है l जब भी वह अजय की पत्नी अलका से मिलता है उस का मन डोलता रहता है l औरत मजबूर हो कर ही किसी को शरीर देती होगी l पर पुरुष की निगाह और मन में औरत के लिए हर जगह हवस दिखती है l नृत्य और संगीत जैसे केंद्रों में भी कला के साथ रेप का सिलसिला चलता है l इस भयानक दुनिया में एक पुरुष जब शरीफ बन कर किसी औरत को किसी और पुरुष के चंगुल से निकालता है तो उस के नेक इरादे भी जल्द ही उस औरत के लिए बदल जाते हैं l और वह खुद उस औरत का शिकार करने के चक्कर में रहता है l आज का पत्रकार अपना सुलगता दिल लिए  शराब, क्लब, औरतों-लड़कियों, और सम्मेलनों में उलझा सिगरेट के धुएं उड़ाता काम करता है l बलात्कार जैसी बातों पर ख़बरें लिखने वाले ये लोग भी राह चलते, पार्क, ट्रेन, बसों और सिनेमा घरों में लड़कियों पर सीटियां बजाते हैं और गंदे कमेंट भी करते हैं l आज की मीडिया राजनीति, स्पोर्ट, फ़िल्मों और इन के दलालों के बीच फंसी हुई है l हर अखबार नामी और बदनामी की खबरों से भरा हुआ है l इंटरव्यू लेते हुए पत्रकारों को कई बार किसी बात की तह तक पहुंचने के लिए  कितनी-कितनी बार एक जगह के चक्कर लगाने पड़ते हैं l और किसी अप्रिय बात की सचाई का परदाफाश करने पर ववाल का सामना भी करना पड़ता है l रिपोर्टरों की जान तक पर बन आती है जैसे कि 'कुष्ठाश्रम' वाला केस ले कर संजय आफत में फंस जाता है l अख़बारों में लोगों की इमेज को ले कर सच-झूठ की अफवाहें भरी रहती हैं l उन लोगों के निजी जीवन की हर छोटी-मोटी बात पर कुछ कहे बिना अखबारों और पत्रिकाओं की प्यास नहीं बुझती l उन में जैसे अधूरापन रहता है l योगेश जैसे लोग व्यवस्था को बदलने की हिमाकत में परेशानियों से जूझते रहते हैं और उन के परिवार आर्थिक सुख से वंचित रहने के कारण कई तरह की तंगियों में जीते हैं l योगेश जैसे लोगों की दशा देख कर संजय जैसे लोग हार मानने की सोचते हैं और जीवन को चुनौती न दे कर अपने उसूलों को समय के साथ बदल कर चलने का फैसला करने लगते हैं l परिस्थितियों के साथ समझौता करने की सोचते हैं l गांधी और सुभाष बनने को कौन तैयार है आजकल?  लोगों की संवेदनहीनता संजय को कचोटती है l और साथ में अगर किसी के अभिनय में कमी हो और संवादों के साथ भी न्याय ना हो पाए तो ये बात भी उस के मन को सालती रहती है l


जैसा कि नाटक में हेमा के अभिनय और वाचन से लगा l लेकिन क्या पत्रकार संवेदनहीन नहीं होते? ये लोग तो साथ काम करने वाली लड़कियों पर भी लाइन मारने से बाज नहीं आते l औरत को एक आइटम समझ कर अपने सहकर्मियों से उन के बारे में बात करना और अश्लील प्रस्ताव के तरीके सुझाना आदि इन के लिए मन बहलाने का साधन हैं l मीडिया के लोगों का बिना लड़कियों में इन्वाल्व हुए  जैसे काम नहीं चलता l एक तरफ समाज में सताई गई  लड़कियों के बचाव में रिपोर्ट लिखते हैं तो दूसरी तरफ ये लोग दोस्तों और सहकर्मियों के साथ डींग हांकते खुद भी किसी लड़की की असहाय अवस्था का फ़ायदा उठाने के चक्कर में रहते हैं l चाहे वह साथ में ही काम क्यों ना करती हो l और उन्हें पटाने के चक्कर में रहते हैं l जैसे संजय चेतना की उदासीनता के वावजूद भी उसे हथियाने के चक्कर में रहता है पर जब उस की दाल नहीं गलती तो उस की दिलचस्पी भी उस में ख़त्म होने लगती है l फिर संजय को उस से बातचीत करना समय गंवाने जैसा लगने लगता है l और उर्दू जुबां वाले तल्ख़ साहब जब टेलीफ़ोन आपरेटर पर डोरे डालना बंद नहीं करते तो बाद में सिर्फ उन्हें तल्खी ही मिलती है l जिंदगी के युद्ध में लड़कियों को भी जीतना जैसे पुरुषों की चुनौती है l और हर लड़की इन दुशासनों के बीच जैसे द्रोपदी सा महसूस करती है l पर पुरुष किसी औरत का शरीर ज़बरदस्ती छुए  या उसे फुसला कर...क्या फरक है इस में? बाद में स्त्री को तो पछतावा होता है पर क्या पुरुष भी अपना आपा खोने पर पछताते हैं? क्या ज़रूरी है कि बदलते समय में हर कोई अपने को गिराता चले? क्या पुरुष औरतों के संग-साथ में इस जमाने में अपनी मानसिकता पवित्र नहीं रख सकते? सब पर लांछन लगाना स्त्री जाति के संग अन्याय है पर कुछ औरतें भी पुरुषों की बराबरी करने में पीछे नहीं दिखतीं l पुरुषों के संग बराबरी की योग्यता रखने वाली कई औरतें अपनी सोच समझ भी पुरुषों की तरह बना कर बराबर की आज़ादी इस्तेमाल करती हैं l पुरुष को देह समर्पण करने वाली औरतें चाहें आफिस में काम करती हों या कोठे में रहती हों उन में क्या अंतर रह जाता है? पर जब स्त्री-पुरुष दोनों ही बिंधते हैं इस में तो पुरुष की जगह औरत पर ही क्यों अधिक धब्बा लगता है? औरतें पुरुष को अपनी जीत का आइटम कह कर / बना कर गप्पे नहीं मारतीं जैसा पुरुष समाज करता है l हर काम करने वाली लड़की को झटका देने को इतना ही काफी है कि उन की पीठ के पीछे उन के पुरुष सहयोगी कैसी-कैसी भद्दी बातें करते हैं l भइया-भइया कहने वाली लड़कियों तक को ये लोग नहीं छोड़ते l संजय, आलोक व उमेश जैसे दीवाने लोगों से मीडिया भरा हुआ है l जो अपने काम से सरोकार रखते हुए लड़कियों से दरकार करने में पीछे नहीं रहते l शिक्षित युग के नौजवान अपनी मानसिकता व नैतिकता का पतन खुद करने पर तुले हुए हैं l और दुख की बात तो है कि नौजवान सहकर्मियों की देखा-देखी सुजानपुरिया जैसे बीवी-बच्चों वाले लोग भी पीछे नहीं रहना चाहते l ऐसी बातों के चक्कर में वह कोठे वालियों से खुद उल्लू बन जाते हैं पर फिर भी उन्हें अकल नहीं आती l यों तो हर किसी के जीवन में समस्याएं हैं जिन का समाधान किसी और के पास नहीं सिर्फ़ उन्हीं को ढूंढना पड़ता है l पर क्या धंधा करने वाले कोठों की ही तरह जिस्म के लेन-देन में मीडिया के लोग भी उन की तरह हैं l ये लोग भी सभ्यता और संस्कारों का लिबास पहने अपने जिस्म का व्यापार करते हैं l यहां कोई भी किसी का नहीं l पेट की भूख मिटाने के लिए इंसान के पास उस का प्रोफ़ेशन है पर जिंदगी का अकेलापन उन्हें औरतों की तरफ आकर्षित करता है l


अपने-अपने युद्ध में लड़ते हुए जैसे रिश्तों के नाम भी खो गए हैं l उन का अर्थ भी कहीं खो गया सा लगता है l शादी-शुदा हो कर भी पुरुष जाति वेवफ़ा है l उन की आसक्ति अन्य स्त्रियों में रहती है l जिंदगी जीने को पैसा एक सचाई है l पर रिश्तों में अब वासना की हवस है l अब रिश्ते सबल नहीं रहे, इन में बल पड़ रहे हैं l सेक्स एक टैबू सब्जेक्ट होते हुए भी आजकल आफिसों में काम करने वाले लोगों की बातों व दिमाग में घुसा रहता है l जानी-पहचानी लड़की किसी भी वर्ग की हो लोगों की निगाह उस की देह पर पर टिकी रहती है और उसे अपना शिकार बनाने को तैयार रहते हैं l संजय का एक पालिटिशियन की लड़की से अवैध संबंध है और उस का कहना है,''सेक्स ही जीवन है l सेक्स चोरी नहीं है, पाप नहीं है l सेक्स एक आदिम ज़रूरत है l एक नैसर्गिक ज़रूरत l'' वह बोलता रहा, ''जिस दिन सेक्स को लोग सामान्य लेने लगेंगे बिलकुल भोजन और पानी की तरह, देखना ज्यादातर समस्याएं , ज्यादातर अपराध पृथ्वी से खुद-व-खुद ख़त्म हो जाएंगे l क्यों कि ज्यादातर अपराध और जटिलताएं सेक्स, दमित सेक्स की उपज हैं l क्यों कि सेक्स एक टैबू बन कर रह गया है हमारे समाज में l हम हर क्षण जीते हैं पर सार्वजनिक जीवन में हर क्षण सेक्स को धकियाते रहते हैं l'' सुजानपुरिया की तरह कहीं कोई कोठे पर जाता है अपनी वासना पूर्ति के लिए तो कोई अपना रुतबा दिखाते हुए सभ्यता के लिबास में सभ्य दिखने वाली औरत की देह लूटता है l कोठे वालियां तो खुले आम बदनाम होती हैं और रंडियां कहलाती हैं l कोठों पर पुलिस छापा मारती रहती है और धंधा करने के जुर्म में इन्हें जेल में भी ठूंस दिया जाता है l पर ये सभ्य सोसाइटी की लेडीज़ किसी होटल या आशियाने में अपनी देह समर्पण करने जाती हैं l जिस-तिस पर ये स्वेच्छा से अर्पण होती रहती हैं l इन पर पुलिस छापा नहीं मारती पर लोग इन पर पीठ पीछे हंसते हैं l और ये मिस्ट्रेस कहलाती हैं क्यों कि इन से लोग कैजुयल अफ़ेयर रखते हैं l स्त्री-पुरुष दोनों अपने परिवार से छिप कर कभी किसी होटल के कमरे में तो कभी कहीं और जा कर एक दूसरे को देह समर्पण करते रहते हैं l पुरुष लोग अकसर घर में बीवी  होते हुए भी बाहर का माल-मत्ता खाते रहते हैं और आंख-मटक्का करने में माहिर हो जाते हैं l कुछ पुरुषों का जैसे एक औरत से काम नहीं चलता l औरत ना हो गई इन के लिए  जैसे रबड़ी या रसगुल्ला कि बाहर गए और जिसे पसंद किया उस का भोग लगा आए  l संजय की इतनी स्वतंत्र सोच पर शायद पश्चिमी सभ्यता के लोगों को भी शर्म आ जाए  l इस तरह सेक्स के लिए  हरदम भूखे खुले-आम घूमने वाले इंसान और जानवर में क्या फरक रह जाता है? घर में बीवी होते हुए  भी बाहर मुंह मारते हैं जैसे घर के खाने से उकता कर कोई बाहर होटल की डिश खाना चाहे l संजय जैसे बुद्धिजीवी लोग अवैध संबंधों को खुले आम जीते हैं l और नैतिकता दरवाज़े के बाहर छोड़ देते हैं l सेक्स को ले कर तमाम फिलासफ़ी झाड़ते रहते हैं l अगर इंसान को कुछ भा जाता है तो वह दुनिया की निगाहों में बुरा होते हुए भी अपने लिए डिफेंसिव रहता है l यही किस्सा है संजय व उस के संगी-साथियों का जो पारिवारिक जीवन दांव पर लगा कर भी नीला, चेतना, रीना जैसी न जाने कितनी लड़कियों के संग संबंध रखते हैं l इन में से किसी भी को बदनामी की चिंता नहीं l


अख़बार के मालिकों के हितों को देखते हुए  रिपोर्टरों की रिपोर्ट को बदलना, रिपोर्टरों और डेस्क पर काम करने वाले लोगों में बहस,  कोई अनबन होने पर रिपोर्ट को काट-छांट कर पेश करना ये सब अख़बारों के आफिसों में आए  दिन चलता रहता है l लोग एक दूसरे का ईगो कुचलने में लगे हैं l काम पर ये सब होता है और फिर पर्सनल लाइफ में भी इन के संघर्ष चलते रहते हैं l इंसान हर दिन जूझता ही रहता है l पेशे से तो रिपोर्टर हैं पर इन के मन में तल्खी रहती है कि ये लोग एक तरीके से पूंजीपति अखबार के मालिकों के चाकर से अधिक कुछ नहीं l और , ''राजनीतिज्ञों, अफसरों के आगे इन सो काल्ड पत्रकारों की हैसियत एक कुत्ते से ज्यादा नहीं है l उस ने फिर से जोड़ा हथौड़ा मार कर कील को पूरी तरह ठोंक देना चाहता हो, ''क्या नेता, क्या अभिनेता सब पत्रकारों को कुत्ता समझते हैं l कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं l वह अपनी सुविधा और ज़रूरत के ही मुताबिक़  'पत्रकार' को कोई खबर या सुविधा देते हैं l'' ख़बरों की दुनिया में रहते हुए  रिपोर्टर हर तरह के मुद्दों से जूझते रहते हैं l काम का तनाव और जिंदगी की घुटन दूर करने के लिये ये लोग किन चीजों का सहारा लेते हैं उन का खुलासा बहुत अच्छी तरह हुआ है इस उपन्यास में l रीना जैसी अमीर बाप की लड़कियां और संजय जैसे कितने ही लोग इस दुनिया में एक दूसरे के शरीरों से खेलते रहते हैं l उपन्यास में एक ऐसी दुनिया के दर्शन होते हैं जहां शर्मिंदगी नाम की कोई चीज़ ही नहीं l  एक तरफ तो पत्रकार नेताओं और मंत्रियों की बुराई करते हैं ऐसे संबंधों पर और दूसरी तरफ पत्रकार लोग भी लड़कियों के भूखे रहते हैं l ये लोग औरतों को पान की तरह चबा कर थूकते रहते हैं l अवैध संबंधों को संगी साथियों के बीच डिसकस करते हुए इन्हें कोई हिचक नहीं होती l किसी लड़की को पटा कर समझते हैं जैसे कि कोई किला जीत लिया हो l वहां न पटरी खाई तो किसी और को पटाने के चक्कर में रहते हैं l यानि 'तू नहीं तो और सही' का फार्मूला आजमाते हैं l इन बातों को सो चकर दुनिया से जैसे विश्वास उठने लगता है l शर्मिंदगी की जगह बेहयाई ने ले ली है l पैसा, शराब और सेक्स में डूब कर इंसान अपने वहशीपन से अनजान बना रहता है l हर गलत बात उसे सही नज़र आती है l अखबारी दुनिया जिसे लोग देश का स्तंभ बोलते हैं, जहां लोग नैतिकता और सिद्धांत की बातें करते हैं उस के कर्मचारी खुद नैतिक और अनैतिक बातों में भेद करना भूल जाते हैं l सारे उसूल एक तरफ रख कर जिंदगी को भरपूर जीना चाहते हैं l कोई रिश्वत के पीछे है और कोई शराब और सेक्स के l कौन क्या सोचता है उन के बारे में इस की उन्हें परवाह नहीं l इन का व्यवहार जैसे औरों से कहता हो , 'माइंड योर ओन बिजिनेस' l मन में सवाल उठता है कि इस तरह का जीवन जीना क्या इन की बाध्यता है? क्या ज़रूरी है इंसान औरों की नकल करे? क्या काम की टेंशन मिटाने के लिए अपना आचरण ख़राब करना ज़रूरी है? क्या आज के जमाने में नीला, रीना और चेतना जैसी सभी लड़कियां होती हैं? या संजय और सुजानपुरिया जैसे सभी पुरुष सेक्स के पीछे भागते हैं? अख़बारों के लिए खबरों का लिखना रिपोर्टरों का काम है पर अख़बार की छवि ना बिगड़ने पाए  यह सोच कर ख़बरों में काट-छांट करने की बात पर संपादक अड़ियल बन जाते हैं l कई बार बात कुछ और होती है पर उस की असलियत छुपा ली जाती है l हिंदी की ख़बरों की अंग्रेजी ख़बरों के आगे तौहीन l


प्रेस कांफ्रेंस में भी हिंदी पत्रकारों के हिंदी में सवाल पूछने पर उन्हें नीचा दिखना पड़ता है व अंग्रेजी के चमचों के व्यंग्य सहने पड़ते हैं l कभी मैनेजमेंट, कभी संपादक और कभी किसी और कर्मचारी से बहसे होती रहती हैं और किसी न किसी को इस्तीफ़ा देने की नौबत आ जाती है l क्षण भर के आवेश में आ कर इस्तीफ़ा देते समय लोग अपने व परिवार के भविष्य के बारे में नहीं सोचते l पर फूल सिंह जैसे लोग जानते हैं कि जो लोग इस तरह इस्तीफ़ा  देते हैं उन की हालत क्या होती है l काम मिलना आसान नहीं l अंग्रेजी में एक कहावत है,'जाब्स डोंट ग्रो आन ट्रीज l' काम ढूंढने के चक्कर में लोगों को अपनी एड़ियां रगड़नी पड़ती हैं l और संजय जैसे खुद्दार इंसान को इस्तीफ़ा देने पर फूल सिंह को उसे समझाना पड़ता है,'' ई वेवकूफी कब्बो करिहो ना l हम बहुत पत्रकारों को देखे हैं हिंया l अंगरेजों को भी. बड़ों-बड़ों की शेखी निकरते देखी है l'' अपनी मूंछ ठीक करते हुए  वह बोला,''मन जियादा खराब हो तो चुपचाप घर जाओ l दूइ चार दिन की छुट्टी ले लो l फिर आओ l पर ई वेवाकूई कब्बो ना करिहो l नाहीं बड़ा पछितहियो l'' अखबारी दुनिया में सरोज जी जैसे मतलबी, बेशर्म और घाघ व त्रिपाठी जैसे कमीने लोगों की कमी नहीं, '' दफ़्तर में एक कहावत थी कि सांप का काटा आदमी एक बार जी सकता है पर सरोज जी का काटा आदमी मर के भी छुट्टी नहीं पाता l वह उसे फिर भी मारते रहते हैं l पर सरोज जी एक शै थे तो त्रिपाठी दूसरी शै l खेल सरोज जी रहे थे पर बिसात त्रिपाठी ने ही बिछाई थी l त्रिपाठी के पास चमचई की इतनी कलाएं, इतनी उक्तियां थीं कि अच्छे-अच्छे अकडुओं को वह वश में कर लेता था l सरोज जी सांपनाथ थे तो त्रिपाठी नागनाथ l'' दोनों ही एक दूसरे के साथ शतरंज की चालें खेलते रहते हैं एक दूसरे को हराने में चतुराई से पेश आते हैं l त्रिपाठी मीठी छुरी बन कर कान काटने में माहिर है तो सरोज जी उसे अपने रास्ते से हटाने को हाथ धो कर पड़ जाने वाली ततैया l सरोज जी जैसे सीनियर लोग अपने से जूनियर से अगर पटरी ना खाई तो उस का जीना ही मुहाल कर देते हैं l और उसे सताने के लिए उस से ऐसा-वैसा काम करवाने लगते हैं l जैसे कि एक बार उन्हों ने शहर में खुले मेनहोल वाला असाइनमेंट त्रिपाठी को थमा दिया l पर त्रिपाठी भी उन से कोई कम नहीं l उसने गली-गली खुद सर्वे ना कर के महापालिका से आंकड़े ले कर शार्टकट लिया और सरोज जी जैसे धूर्त इंसान को चकमा दे कर रिपोर्ट लिखना भी उन्हीं के मत्थे मढ़ दिया l त्रिपाठी से बदला निकालने के चक्कर में वो अपनी स्कीम में खुद ही फंस जाते हैं l


सरोज जी जैसे व्यक्ति किसी विवादास्पद स्थिति में पड़ने की बजाय सफ़ेद झूठ बोलना अधिक पसंद करते हैं , '' जैसे कि एक बार एक प्रेस कर्मचारी उन के घर के पास किसी विवाद में पड़ गया तो उस ने अपने को प्रेस का बताया और तसदीक़ के लिए  सरोज जी का नाम लिया कि चाहें तो उन से पूछ लें l उसे सरोज जी के घर ले जाया गया l पर सरोज जी ने उसे पहचानने से साफ इंकार कर दिया l नतीज़तन उस कर्मचारी पर शामत आ गई l उस की बड़ी पिटाई हुई l जब कि सरोज जी उसे बहुत अच्छी तरह जानते थे l ऐसे ही एक बार दादा क़िस्म के रिपोर्टर मिश्रा ने सरोज जी से कुछ कहा-सुनी के बाद उन्हें सीढ़ियों पर से धकेल दिया तो विनय ने मिश्रा से टोका-टाकी की l मिश्रा ने विनय को पीट दिया l विनय ने शिकायत की l जांच शुरू हुई l जांच के दौरान विनय ने बताया कि मिश्रा जी ने सरोज जी को सीढ़ियों से धकेल दिया था l सरोज जी की धोती खुल गई , मुंह फूट गया l सरोज जी चूंकि बुजुर्ग हैं, उन की मदद करना उस का फर्ज था सो उसने मिश्रा को टोका l टोकने पर मिश्रा ने उस की पिटाई कर दी l साक्ष्य के लिए  सरोज जी बुलाए गए  l सरोज जी ने बयान दिया कि उन को कभी किसी ने सीढियों पर से धकेला ही नहीं l रही बात मुंह फूटने की तो वह घर में बाथरूम में फिसल कर गिर गए  थे l'' सरोज जी के बारे में और भी,’’दरअसल सरोज जी की ख़ूबी कहिए या ख़ामी वह यही थी कि वह कब आप पर कृपालु हो जाएं और कब कुपित कुछ ठिकाना नहीं होता था l पता चला कि सुबह वो आप पर ढेर सारा स्नेह उंडेल दें और उसी शाम वह आप पर बरस पड़ें l सरेआम आप को बेइज्जत कर दें l यह अंतराल सुबह से शाम के वजाय पांच मिनट का भी हो सकता था l'' सरोज जी में चौकन्नेपन और चालूपन के अलावा कुछ  विचित्र बातें भी हैं l वह जब चाहा चिकना घड़ा भी बन जाते हैं व किसी झमेले से बचने की कला भी जानते हैं l लोग भी उन की नकल खूब उतारते हैं l सरोज जी ने मुख्य मंत्री के दिए  हुए  केले को खाने वाली वाली बात क्या बता दी एक बार लोगों को कि तब से आफिस के लोग नए आए  हुए  लोगों को वो वाकया याद कर के बता-बता कर उन की नकल उतारते रहते हैं l पीठ पीछे उन की कौन बुराई करता है, उन के बारे में कौन क्या सोचता है या उन की टांग खिंचाई हो रही है इन सब बातों का सरोज जी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता l अवसर देखते हुए कभी देखे को अनदेखा और सुने को अनसुना भी कर देते हैं l उन की अजीब हरकतों पर लोगों को अचंभा होता रहता है l सरोज जी पिछवाड़े लात खा कर झाड़-पोंछ कर चुपचाप चल देने वाले इंसानों में से हैं l अपने विचित्र और ठंडे-गर्म व्यवहार से लोगों को झटका देना उन के स्वाभाव की खासियत है l पल में तोला, पल में माशा और पल में खुश, पल में नाखुश होने वाले सरोज जी दीन दुनिया की परवाह किए  बिना 'जियो और जीने दो' में विश्वास नहीं रखते l वह खुद जीना चाहते हैं पर दूसरों का जीना हराम करते रहते हैं l  और स्वार्थी इतने हैं कि काम से रिटायर ही नहीं होना चाहते l लोग उन्हें पसंद नहीं करते, उन्हें झेलते हैं l


इस उपन्यास में मधुकर जैसे झूठे, बेशरम और फ्राड लोगों से भी परिचय होता है l जिस का काम है दूसरों की लिखी कविताएं पढ़ना और मंच पर वाह-वाही लूटना l ऐसे पढ़ना जैसे उसी की लिखी हों और पकड़े जाने पर ताव खा जाता है l ऐसे लोग जैसे भी हो अपनी शान बरकरार रखने की कोशिश करते हैं, ''क्या हमने अपने नाम से छपवा लिया?'' मधुकर बोला शेर पढ़ना चोरी नहीं है l और ये खौलते हुये शेर पढ़ना l सार्वजनिक तौर से पढ़ना वो भी आज के दौर में आसान है क्या? है किसी का जिगरा, है किसी में हिम्मत? शेर दुष्यंत का सही पर उसे पढ़ कर मैंने लोगों को झिंझोडा, यह क्या कम है?'' और जहां तक अपने नाम से छपवा लेने की बात है तो किसी कवि की नई कविता को चेक करने के बहाने उस में कुछ अदल-बदल कर के अपने नाम से छपा भी लेना मधुकर जैसे इंसान के लिए कोई डर की बात नहीं होती l ''कई बार वह नए  कवियों की कविताएं  ठीक करने के बहाने पार कर देता l उस नए  कवि से कहता,'' किसी काम की नहीं है तुम्हारी कविता l और वही कविता थोड़े से रद्दोबदल के बाद महेंद्र मधुकर नाम से छपी मिलती l कोई कवि अगर टोक देता, ''यह तो मेरी ही कविता है l''

 'तुम्हारी कविता कहां है?'' वह खीझता l
 
 ''पर बात तो वही है l''

'हो सकता है तुम्हारी वह बात कहीं जेहन में रह गई हो l और इस कविता में आ गई हो l'' कह कर वह टाल देता l अपनी पत्रिका में नए कवियों द्वारा भेजी गईं ठीक-ठाक कविताएं भी वह जब तब पार कर दूसरी पत्रिकाओं में अपने नाम से छपवा डालता l'' बातों और चार सौ बीसी में पटु मधुकर कवि सम्मेलनों का आयोजक बन कर उन में भाग लेने वाले कवियों के पारिश्रमिक में से भारी कमीशन काटता रहता है l और अपने आफिस के लोगों को भी उल्लू बनाना जानता है l आफिस से नदारद रहते हुए भी उस का काम बराबर चलता रहता है,''अरे पचास रुपये आजू, पचास रुपये बाजू की सीट वालों को दे देता हूं l साले, अपना काम बाद में करते हैं, मेरा काम पहले निपटा देते हैं l बस! और जाता हूं तो सालों को चाय नाश्ता करा देता हूं l बॉस को कवि सम्मेलनों की व्यस्तता बता कर दो चार कविताएं सुना देता हूं l'' एक और कवि है शेखर जो मधुकर की देखा देखी उस की लकीर पर चलने की कोशिश करता है पर मधुकर से मात खाता रहता है l ये दोनों और इन्हीं के जैसे और भी ठग टाइप लोग कवि सम्मेलनों के नाम पर एक धब्बा हैं जिन से कवियों के नाम पर कालिख लगती है l अपनी शेखी बघारते हुए , खुद ही मियां-मिट्ठू बनने वाले शेखर व मधुकर की तरह न जाने कितने कवि दुनिया में होंगे जो कवि सम्मेलनों के आयोजन से मुनाफ़ा कमाते हैं l तो क्या सभी आयोजक शेखर व मधुकर की तरह ही चालू होते हैं? आयोजक होने के नाते किसी की वाहवाही करना और किसी को नीचा दिखाना इन के हाथ में है l बेशर्मी और बेहयाई का बाना पहने ये आयोजक लोग अपने लिए ख्याति, पुरस्कार और प्रशंसा पाने के लोभ में किसी भी नामवर व्यक्ति के लिये कवि सम्मेलन के आयोजन करते रहते हैं l विशिष्ट अतिथियों को ले कर मंच पर भी कैसे-कैसे तमाशे होते हैं उस का नमूना देखने को मिलता है मधुकर के सम्मान में किए  गए आयोजन में l जिस में  मधुकर को मंत्री जी का नाम तक याद नहीं रहता l सरोज जी जिसे सम्मानित करने आते हैं उसी की आंखों में खटकने लगते हैं l फिर भी वह ये सब इग्नोर कर के अपनी अध्यक्षता निभाने के लिए आतुर हैं l सरोज जी के मन में खलबली मची है, अपनी बारी की आस लगाए बैठे हैं l पर बिना उन की बारी आए  ही भीड़ तितर-बितर हो जाती है और वह मन में कुलबुलाते रह जाते हैं भाषण देने को l ये कैसा अन्याय? वह तिलमिलाते रह जाते हैं और लोग अपनी राह चले जाते हैं l पर सरोज जी किस मिट्टी के बने हैं उसे संजय से बेहतर और कौन जान सकता है l इतना अपमान सहने के वावजूद भी सरोज जी की असंवेदनशीलता देखते बनती है l


समारोह में जब उन का कोई भाषण हुआ ही नहीं तो संजय ने रिपोर्ट लिखने को मना कर दिया l तो उन्हों ने खुद ही झूठ-मूठ मनगढंत भाषण की रिपोर्ट लिख ली l और अपना भाषण जो वहां दिया ही नहीं गया था उसे भी रिपोर्ट में लिख दिया। न   सिर्फ़ लिख दिया बल्कि अपने भाषण को ही मुख्य ख़बर भी बना दिया । संजय के पूछने पर सरोज जी बोले ,''जो बात वहां नहीं कह पाए , वह यहां कह दी l' सरोज जी सहज भाव से बोले,''वहां सिर्फ पैंतीस-चालीस लोग ही सुनते, यहां हज़ारों लोग पढ़ेंगे l मतलब तो अपनी बात लोगों तक पहुंचाने से है l'' पाठक को सरोज जी के चालूपने पर दाद देनी पड़ती है l लेखक के शब्दों में सरोज जी की बेशर्मी की भी पुष्टि होती है,'' सरोज जी के लिए जलील या अपमानित होना जैसे कोई क्रिया ही नहीं थी l हर हाल में उन को अपना मकसद साधने भर से मतलब रहता l और वह साध लेते l येन-केन-प्रकारेण l'' पता नहीं सरोज जी की पर्सनैलिटी में ऐसी क्या बात है कि लोग उन्हें मान्यता नहीं देते और उन्हें उपेक्षा की नजरों से देखते हैं l यहां तक कि जब एक बार उन्हों ने स्वयं के सम्मान की योजना बनाई तो उस में भी लोग उन्हें सम्मानित करने से चूक जाते हैं l और उन्हें आयोजक को याद दिलाना पड़ता है कि उन्हें भी सम्मानित होना है l उन को कविसम्मेलनों की अध्यक्षता करने का बड़ा शौक़ है फिर भी वहां जा कर उन्हें वो सम्मान नहीं मिलता जो एक अध्यक्ष को मिलना चाहिए  l लोग उन की तरफ ध्यान नहीं देते l मालायें भी उन को बदकिस्मती से अच्छी नहीं मिलतीं l इस की भी कुढ़न उन्हें रहती है l कभी मंच पर बैठने की ढंग की जगह नहीं मिलती तो कभी उन के भाषण की बारी आने के पहले ही सारा प्रोग्राम खतम हो जाता है l उन की हालत उस निरीह कुत्ते की तरह है जिस के आगे लोग रोटी का टुकड़ा डालना भूल जाते हैं l सरोज जी उस समय तो चुप रहते हैं पर बाद में भौंकते हैं l और अगर कभी किसी ने उन की कोई झूठी प्रशंसा कर दी तो इतने आत्म मुग्ध हो जाते हैं कि पूछो ना !  या फिर खुद ही आत्म संतुष्टि के लिए अपनी प्रशंसा करने वाले पात्रों को रच कर झूठी कहानी गढ़ लेते हैं और फिर सब को बताते फिरते हैं l ''सरोज जी झूठ गढ़ने और झूठ बोलने में भी महारत रखते थे l वजह-बेवजह झूठ गढ़ना और झूठ बोलना जैसे उन की आदत में शुमार था l'' इतने काइयां किस्म के इंसान हैं वह कि अगर समारोह को ले कर ख़बरों में उन की फ़ोटो ना छपे तो उन से सहन नहीं होता l और फ़ोटोग्राफ़र की शामत आ जाती है l मज़े की बात ये कि लोगों से उन का बिलखना देखा नहीं जाता,''बेलीगारद!'' पूरे सुर से भड़कते हुये सरोज जी बोले,''असली फ़ोटो तो लिए नहीं l बेलीगारद लई लिए l'' वह बिफरे मुख्यमंत्री सम्मानित करि रहे थे , सब के सामने और ई देखे नहीं l'' सरोज जी चीखे,''बेलीगारद देख रहे थे l जाइए देखिये बेलीगारद!'' वह हांफने लगे, अब हम नाहीं बचाइ पाएंगे आप की नौकरी l कउनो और अख़बार में जाई के बेलीगारद देखिए  l हियां अब ई सब नहीं चलेगा l कह कर सरोज जी हांफते हुए  उठ गए l''  वो कोई ख़बर सुनते हैं तो कई बार समझने में गच्चा खा जाते हैं और उस पर ऊटपटांग रिपोर्ट लिख देते हैं l उन के अपने तीन सपने हैं जिन को वह पूरा करने की चाह में छटपटाते रहते हैं l कोई भी ऊंचा अधिकारी किसी से खार खाए बैठा हो तो उसे उस के पद से हटाने में कोई कसर नहीं छोड़ता l और सरोज जी जैसे जल्लाद इंसान अगर किसी को नापसंद करें तो उन्हें खदेड़ कर ही दम लेते हैं l वह पैंतरे बदलने में इतने अनुभवी हैं कि लोग उन की उपमा सांड़ से देते हैं l झूठे इल्जाम संजय पर लगा कर उसे निकालने को उस के पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं l साम, दाम, दंड, भेद इन चारों हथियारों का प्रयोग करने में कोई कसर नहीं छोड़ते l लोग उन्हें भेड़िया भी कहते रहते हैं l सरोज जी की बेशर्मी, उन की नर्मी-गर्मी और आगबबूला होने की आदत आफिस में सब सहते रहते हैं l  वह अपनी पोस्ट पर कुंडली मारे बैठे हैं l खुद तो रिटायर होना नहीं चाहते ताकि किसी और को उन का पद हासिल हो सके l  पर लोग उन का कुछ बिगाड़ नहीं पाते l उन का लिहाज़ करते हैं l लेकिन जिन लोगों को वह नापसंद करते हैं उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए हमेशा मौक़े की तलाश में रहते हैं l और नई-नई तरकीबें सोचते रहते हैं l  संजय के हरिजन विधायकों के जनमोर्चा वाली ख़बर गलत हो जाने से सरोज जी संजय की बुरी गत बनाने की सोचने लगते हैं l उस के इस्तीफ़ा देने की आस लगा बैठे l  आस ही नहीं बल्कि पूरा इत्मीनान कर बैठे कि,''संजय तो गए l''


''वो वि.प्र. सिंह के मोर्चा के दिन थे l बोफोर्स का घड़ा बस फूटा ही था l संजय ने एक ख़बर लिखी कि कांग्रेस के बाइस हरिजन विधायकों ने जनमोर्चा ज्वाइन करने का फ़ैसला लिया l संजय ने यह ख़बर दिन ही में लिख कर संपादक को दे दी l शाम को वह चुपचाप बैठा था l सरोज जी ''कुछ गड़बड़ है'' यह भांप गए थे l कई बार,''आज काव दे रहे हैं?'' पूछ-पूछ कर उन्हों ने सूंघने की कोशिश की l पर संजय हर बार मायूस हो कर,''कुछ नहीं सरोज जी'' कह कर उन्हें टालता रहा l पर दूसरे दिन जब ख़बर छपी तो हमेशा की तरह सरोज जी हांफते हुए संजय से बोले, ''ई काव लंतरानी हांक मारे हैं?'' वह बिफरे, ''और शाम को कहि रहे थे कुछ नहीं l'' इधर संपादक को भी अपनी पड़ी हुई है कि यदि विधायकों के लिखित खंडन वाली बात नहीं छपी तो उस की पेशी हो सकती है l और अगर संजय की ये ख़बर छपती है तो साथ में उस की अपनी रिपोर्ट भी छपेगी जो गलत साबित हो चुकी है l और इस झंझट में उस की नौकरी भी जा सकती है l


संजय परेशान है l  इन बाइस विधायकों की चिंता को लिए  संजय जहां  से उसे ख़बर मिली थी उस हरिजन आई एस आफिसर के पास जाता है l तो वह आफिसर संजय की रिपोर्ट की पुष्टि करता है और संजय की खुशी का ठिकाना नहीं रहता l पर सबूत उस आफिसर के आफिस में है इस लिये उस समय वह संजय की हेल्प नहीं कर पाता l शराब के पेग पीते और संजय को पिलाते हुए उसे पता नहीं कि संजय कितना परेशान है l फिर न जाने कैसे  शराब पीते हुए उन में धर्म को ले कर कोढ़ की तरह फैली कुत्सित धारणाओं, अराजनीति व अव्यवस्था पर भी बातें होने लगती हैं l जाति-धर्म की व्यवस्था पर उन में  लंबा विवाद होने लगता है l संजय का कहना है कि ये व्यवस्था भी इंसान के कार्यों को देख कर ही बनाई गई होगी l संजय से जाति-धर्म पर कुतर्क करने वाले आई ए एस आफिसर भूसीराम  के दिमाग में जैसे भूसा भरा हो l वह खुद तो हरिजन हो कर अपने नाम के आगे सिंह लगाते हैं पर संजय से उस के ब्राह्मण होने पर बहस किए जाते हैं l शायद हरिजन होने से उन्हें इन्फीरियारिटी काम्प्लेक्स है l जिसे भड़ास के रूप में वो संजय पर निकाल रहे हैं l जब से दलितों को आरक्षण मिला है तब से उन की भी जुबान ज़रा ज़्यादा खुलने लगी है l कुछ और नहीं तो जातिवाद को ले कर ही टकराते रहते हैं लोगों से l और कुछ नहीं तो जाति वर्ग की भूमिका बांध कर दलित उत्पीड़न  की हिस्ट्री पर बहस करने पर उतर आते हैं l और भूसीराम  चूंकि आई ए एस आफिसर हैं और जाति से हरिजन तो वह क्यों इस मामले में पीछे रहें l अपने मन की कड़वाहट और पीड़ा सब संजय पर उगल रहे हैं l संजय भी विवाद करने में पीछे रहने वाला या दबने वाला इंसान नहीं l उस के बाद घर आने पर दूसरे दिन संजय उस आफिसर को फ़ोन करता है पर न वह फ़ोन  पर, न घर और न ही अपने आफिस में मिलता है l

संजय का बुरा हाल है l वह संपादक से फ़ोन पर बात करने से बचता है l उस के किसी फ़ोन का जबाब नहीं देता l  फिर अचानक भूसीराम का फ़ोन  कहीं से आ जाता है l किसी बदकिस्मत इंसान की परछाईं कोई भी अपने पर पड़ने नहीं देना चाहता l और भूसीराम को भी यही लगता है कि मुसीबत के मारे संजय का उन के घर जाना शायद मुसीबत को बुलाना था l खैर,  देर से सही पर फिर भी उन्हों ने संजय को फ़ोन किया और उस की हेल्प की l और बाइस विधायकों के दस्तख़त वाला पेपर जो संजय को चाहिए  था उसे गुप्त रूप से उस के पास भिजवा दिया l संपादक और संजय को राहत मिलती है l पर दूसरे दिन अख़बारों में इस ख़बर के छपते ही तहलका मच जाता है l और सरोज जी की खुशियों पर पानी फिर जाता है l पर फिर भी सरोज जी की झूठ-मूठ छक्का मारने की आदत नहीं जाती l वे संजय को ये बता कर डराते हैं कि मुख्यमंत्री इस बात से संजय से बहुत नाराज हैं l अपनी जीत के लिए सरोज जी व संजय दोनों ही जी जान से युद्ध में जुटे हैं l लेकिन सरोज जी के बारे में क्या कहा जाए l उन के लालच की कोई सीमा ही नहीं l वह एम एल सी के बनने का सपना कब से देख रहे हैं जो उन्हें अब साकार होता नज़र नहीं आता और इस का जिम्मेदार वह संजय को समझते हैं l उन के मन की सारी कड़वाहट संजय पर उतरती है l सरोज जी उसे बर्बाद करने की तरकीबें सोचते रहते हैं l संजय को संदेह था कि जनमोर्चा पर जाने वाले विधायकों का मंतव्य मंत्री पद पाने के लिये था l किंतु इस ख़बर को सार्वजनिक बनाने वाले संवाददाता यानी संजय के खिलाफ विधान परिषद में विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पेश हो जाता है l और विधायक संजय को दंड दिलवाना चाहते हैं l लेकिन बाद में ये सोच कर कि कहीं मामला तूल ना पकड़ ले इस लिए  प्रस्ताव को पास नहीं किया जाता l और संजय की इस बात पर लिखी स्टोरी छापने से संपादक मना  कर देता है l शायद वह अब और अधिक झगड़े में नहीं पड़ना चाहते l या शायद उन का अहम आड़े आ रहा है l और वह अपना मान-सम्मान राजनीतिक लोगों के यहां भोज में जा कर और भारी उपहार आदि से बिक जाने वाले लोगों में से नहीं हैं l सरोज जी से बिलकुल उल्टी आदत के हैं l सरोज जी तो दूसरों की फेंकी हड्डी के पीछे भी लपकते रहते हैं l उधर वो जनरल मैनेजर भी सरोज जी के संग हो जाता है l और संजय की हालत उस चूहे सी हो जाती है जिसे माउस ट्रैप में फंसाने को लोग नई-नई तरकीबें सोचते हैं l उसे ऐसे-वैसे कामों में फंसा कर नाकाम होते हुए देखने की तमन्ना सरोज जी में उबलती रहती है l हर किसी के विचार से सरोज जी संपादक बनने के लायक़  नहीं हैं l उन्हें अब कार्यवाहक संपादक की पोस्ट से हटा कर संपादकीय सलाहकार बना दिया जाता है l और नरेंद्र जी की जगह नया संपादक राना आ जाता है जिसे संजय पहले से जानता है l पर क्यों कि संजय उस की चमचागिरी में नहीं पड़ा तो राना भी उसे सरोज जी की तरह उस में नुक्स निकाल कर तंग करने लगता है l जिस सच्चाई के रास्ते पर संजय चलना चाहता है उस पर कांटे बिछे हैं l


कंपनी बिक जाती है, नया स्वामित्व आ जाता है पर राना जैसे लोग नहीं जाते l सिफ़ारिशों के बूते अपनी पोस्ट पर बरकरार रहते हैं l और संजय जैसे ईमानदार रिपोर्टरों का जीना दूभर कर देते हैं l हवा का रुख देख कर मनोहर और प्रकाश जैसे लोग भी उस से कन्नी काटने लगते हैं l और आख़िर में संजय को नौकरी से निकालने की भरसक कोशिश की जाती है l उस पर इस्तीफ़ा देने का दबाब पड़ता है l पर वह हार मानने वालों में से नहीं l अंतत: वह बर्खास्त कर दिया जाता है । अपने लिए  न्याय मांगने वह हाईकोर्ट तक जाता है l क़ानून का दरवाज़ा  खटखटाता है l उस को अपनी बर्खास्तगी  खिलाफ स्टे मिल जाता है । पर उस आदेश को न तो अखबार मालिकान और मैनेजमेंट मानता है न ही उसे अमल करवा पाती है । हाईकोर्ट का  रद्दी कागज़ साबित हो कर रहा जाता है । जिस का कोई मतलब नहीं । हार कर कंटेम्पट आफ कोर्ट  कर देता है संजय । और फिर न्याय के लिए  एक नया युद्ध शुरू होता है है, ''वैसे ही जैसे बिल्ली बाघ से लड़े l'' अब ''हाईकोर्ट संजय का नया ओढना-बिछौना था l'' उसे  धर्मयुद्ध लड़ना है l लेकिन क्या यह युद्ध लड़ना इतना आसान है? क्यों कि, ''कचहरी तो बेवा का तन देखती है, खुलेगा कहां से बटन देखती है l'' कोर्ट कचहरी जा कर इंसान नंगा हो जाता है l वह लुट जाता है समय, पैसे व उम्र से l दर-दर  की ठोकरें खानी पड़ती हैं l ये सब जानते हुए भी हर किसी को लगता है कि किसी दिन वह अपना युद्ध जीत जाएगा l तारीखों के बाद तारीखें मिलती रहती हैं l और सालों बाद भी जब मामला ज्यों का त्यों रहता है तो आस मिटने लगती है l


लेखक ने अपने उपन्यास में बड़ी खूबसूरती से हाईकोर्ट की तुलनात्मक व्याख्या की है,''हाईकोर्ट जो रावणों का घर है l जहां हर जज, हर वकील रावण है l न्याय वहां सीता है और क़ानून मारीच l जैसे रावण अपने मामा मारीच को आगे कर सीता को हर ले गया ठीक वैसे ही हाईकोर्ट में जज और वकील क़ानून को मामा मारीच बना कर न्याय की सीता छलते हैं l ''राम'' को हिरन की तलाश में भटकाते हुए न्याय की सीता को हर लेते हैं l क्या तो अपना-अपना इंटरप्रेटेशन है! लॉ का एक प्रोसीज़र है l तिस पर तुर्रा यह कि ''वादकारी का हित सर्वोच्च होता है l'' पर वास्तविकता यह है कि वादकारी राम बना मारीच के पीछे-पीछे भागता रहता है और थक हार कर वापस आता है तो पाता है कि सीता यानी  न्याय का हरण हो गया है l फिर वह व्यक्ति राम की तरह ''तुम देखी सीता मृगनयनी !'' कहता हुआ यहां-वहां तारीखों के मकड़जाल में भटकता रहता है l फिर भी जैसे राम को भी पता था कि मृग सोने का नहीं होता, फिर भी सीता के कहे पर पीछे-पीछे भागता है l न्याय पाने की आस में l ऐसा भी नहीं कि न्याय वहां नहीं मिलता l न्याय मिलता भी है पर राम को नहीं l रावण  को और उस के परिजनों को l हत्यारों, डकैतों को जमानत मिलती है l हां, राम को तारीख़  मिलती है l'' और इन कभी ना ख़त्म होने वाली तारीखों से ही न्याय की लड़ाई के लिए संजय का उत्साह धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगता है l वह डिप्रेशन का शिकार हो जाता है l न्याय भी जैसे व्यवसाय बन कर रह गया है l न्यायपालिका किसी बनिए की दूकान की तरह हो गई है जहां वकील और जज बनिया बने हुए हैं l और ये लोग किसी केस को न्याय के पलड़ों में ईमानदारी से नहीं तोलते l ये सब पैसे और रिश्वत के भूखे हैं l सामने कुछ और, पीछे कुछ और खेल खेलते हैं l यहां सब की याचनाओं को सुनने के लिए  जज के पास समय नहीं l कभी बहस हो कर रह जाती हैं तो कभी याचना को सुन कर भी अनसुना कर दिया जाता है l न्याय अंधा और बहरा है l और अंत में कोई गरीब और असहाय इंसान कोर्ट-कचहरी के चक्कर मारते-मारते एक दिन मर कर वहीं ढेर हो जाता है l जैसा कि एक व्यक्ति राम के साथ हुआ, ''फाइनल तारीखें लेते-लेते एक दिन राम खुद ही कोर्ट में फाइनल हो गए l'' संजय का मन ये सब देख सुन कर कांप उठता है l इंसान के पढ़े-लिखे होने से ये तो साबित नहीं होता कि वह किसी क़ानूनी बात का शिकार नहीं हो सकता l लेकिन कुछ वकील अपनी वेवकूफी साबित करते रहते हैं, ''और उस दिन तो संजय की आंखें खुली की खुली रह गईं जब एक काफी बड़े वकील ने उस से पूछा,''आप पढ़े-लिखे आदमी हैं?'' संजय ने जब ''हां !'' कहा तो वह वकील बोले, ''तो फिर आप यहां क्या कर रहे हैं? हाई कोर्ट कोई पढ़े-लिखों की जगह नहीं है l'' जैसे कि पढ़े-लिखों की वकालत करने के लिए कोई और जगह होती होगी या पढ़े-लिखे लोग जैसे मुक़दमेबाज़ी जैसी मुसीबतों में पड़ते ही नहीं l


संजय हाईकोर्ट के चक्कर मारते हुए इतना ऊब गया कि फिर काफी दिनों तक उसने कोई तारीखें नहीं लीं l ये वकील लोग तारीखें बढ़ा कर लोगों के कफ़न में कील ठोंकते रहते हैं l न्याय-व्यवस्था इतनी कलंकित हो चुकी है फिर भी मजबूरी में इंसान को कोर्ट का मुंह देखना पड़ता है l वह क़ानून को अपने हाथों में नहीं ले सकता l और अगर कोई अपनी कुंठा किसी रूप में कोर्ट में दिखाता है तो उसे भी गुनाह साबित कर इंसान को मुजरिम करार दिया जाता है l जैसा कि बीस साल से हाईकोर्ट आने वाली एक बूढ़ी महिला के साथ होता है l वाकई में कोर्ट में बैठी यह न्याय मूर्तियां केवल मूर्तियां ही हैं l पत्थर की नहीं , ये हाड़-मांस की मूर्तियां हैं पर दिल इन के पत्थर के हैं l इन के दिल संवेदनहीन हैं l इन का जीवन मशीनी है रोजमर्रा के आफिस के काम की तरह l वकील और जज कोर्ट में आ कर विराजमान हो जाते हैं l पर न्याय के लिए भटकने वाले कितने लोगों का ये भला करते हैं? ये अपने पेशे का समय पूरा कर के चले जाते हैं l और इन के मुवक्किल इन्हें हर पेशी पर पैसे दे दे कर खोखले हो जाते हैं l उन की जेबें भरने को लोगों के घर और ज़मीन जायदाद तक बिक जाते हैं l लेकिन फिर भी केस जीतने की कोई गारंटी नहीं l और कई बार जीत कर भी कोर्ट के आदेशों का अनुपालन न होने से लोगों की भीड़ कोर्ट में बनी रहती है l ये कैसी न्याय व्यवस्था है? हाईकोर्ट में बरसों से न्याय की आशा में आने वाले लोगों को देख कर ही संजय को ढाढस मिलता है l और निराश होने पर उसे भी अपने लिए रोशनी की किरन दिखाई देने लगती है l हाईकोर्ट में न्याय के लिए आलाप-प्रलाप चलता रहता है l जिसे ज़रूरत पड़ती है वह न्याय पाने की आशा में इन न्याय मूर्तियों के पास जाता ही है l मरता क्या न करता वाली बात है l लेकिन जिस पर ये सब बीता ना हो वह समझ कर भी समझता नहीं जैसे कि चेतना का कहना कि, '' बाक़ी  सारी बातें सुन सकती हूं, पर हाईकोर्ट की भड़ास नहीं l'' इस पर संजय बिफरा पड़ता, ''यहां जिंदगी जहन्नुम हुई जा रही है और तुम इसे भड़ास कहती हो!'' वह छूटते ही बोलती, ''बिलकुल! किस डाक्टर ने कहा कि हाईकोर्ट में मुकदमा लड़िए? मैं तो कहती हूं  कि अगर कोई डाक्टर कहे भी तो मुकदमा नहीं लड़ना चाहिए !'' वह कहती, ''कोई और बात करिए l यहां तक कि जहन्नुम की बात करिए सुनूंगी l पर हाईकोर्ट और मुक़दमे की नहीं l क्यों कि जहन्नुम एक बार सुधर सकता है l पर हाईकोर्ट नहीं l फिर जहन्नुम में कम से कम किसी शरीफ़ और भले आदमी को तो अकारण नहीं फंसना पड़ता l पर हाईकोर्ट में?'' वह बोलती, ''अच्छा भला आदमी सड़ जाता है l जाता है न्याय मांगने और न्याय की रट लगाते-लगाते अन्याय की भंवर में डूब जाता है l और कोई बचाने नहीं आता l''


कोर्ट में अपने केस की सुनवाई के लिये संजय हर अगली तारीख़ का बेसब्री से इंतजार करता है l पर कोर्ट आने पर पता लगता है कि वहाँ अपोजिट पार्टी का वकील मौजूद नहीं है l और उस का जूनियर उस वकील के लिए  कोई बहाना कर के या झूठ बोल कर तारीख़ आगे बढ़वा लेता है l फिर चाहे वो वकील कोर्ट के बाहर ही क्यों ना टहल रहा हो l या फिर कोई वकील केस की फ़ाइल घर पर भूल आता है तो भी तारीख़ आगे बढ़ा दी जाती है l मजबूर इंसान इन न्यायमूर्तियों की कारस्तानियों को झेलते हुए फ्रस्टेट होता रहता है l संजय जैसे लोग क्या करें? और कभी-कभी जज भी जज ना रह कर ' सीता ' बन जाते हैं l जब कभी कोई सुंदर लेडी वकील मटकती हुई कोर्ट में एंट्री मारती है तो उस की बातों की मिठास व उसके रूप का जादू जज पर ऐसा चलता है कि वह अपनी सूझबूझ ही खो बैठता है l उस की अकल पर पत्थर पड़ जाते हैं l ये मरीचिकायें अपने रूप व सुरीली बोली से सख्त से सख्त जज को भी अपने जाल में फंसा लेती हैं l और ये जज लोगों की याचिकाएं भूल कर उन के कहने पर सुनवाई की तारीखें आगे बढ़ाते रहते हैं l तारीख़ आगे बढ़ाने के लिए ‘ग्रांटेड’ कहना इन जजों के लिए  कितना आसान होता है l इस तरह केस अटके रहते हैं l जज तारीखें आगे बढ़ाने के आदेश देते रहते हैं l और न्याय की प्रतीक्षा करता इंसान वकील और जजों के ये चोंचले देख-देख कर परेशान होता रहता है l इन न्याय मूर्तियों को लोगों को उन के केसों में लटकाए रखने में जैसे किसी 'आंतरिक सुख' की अनुभूति होती है l अपनी पोजीशन की गरिमा और मद में चूर तारीखें बढ़ाते हुए ये लोग इंसान के समय व पैसे की क़ीमत नहीं आंकते l कभी किसी केस में ये जज केस की गंभीरता पर सोचे वगैर गुनहगार के ही पक्ष में फैसला सुना कर चलते बनते हैं l जैसे कि एक पति के द्वारा जलाई स्त्री के केस की सुनवाई में हुआ l


संजय के साथी मनोहर और प्रकाश भी उसे बचाने कोर्ट में गवाह बन कर नहीं आते l वह अपने जॉब को खतरे में नहीं डालना चाहते l आफिस में संजय की अनशन की बात पर भी अनबन हो जाती है l गांधी जी की दिखाई शांतिपूर्ण राह पर चलना भी अब गुनाह हो गया l रिश्वत हाईकोर्ट में न्याय को गद्दार कर देती है l सब को अपना युद्ध अकेले ही लड़ना पड़ रहा है l आज कल चाहे गांव की न्यायपालिका हो या हाईकोर्ट हर जगह न्याय व्यवस्था बिगड़ चुकी है l पैसा और भ्रष्टाचार ने न्याय की नीव कमजोर कर दी है l आजकल तमाम लोग समय व्यर्थ करने की बजाय जमीन जायदाद के झगड़े गुंडों को पैसा दे कर निपटा लेते हैं l अदालतें भी तो पैसा लेती हैं और हत्यारों को ज़मानत पर छोड़ देती हैं l संजय तारीखों के जाल में क़रीब दो साल तक फंसा रहता है l न कमाई का कोई जरिया, न ही कहीं नौकरी की आशा l हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, मुख्यमंत्री, डिप्टी लेबर कमिश्नर, मानवाधिकार आयोग आदि को भेजे हुए उस के आवेदन पत्र रिजेक्ट हो जाते हैं l 'अगली बार सुनवाई' की बात करने वाले वकीलों के झांसे से तंग हो कर संजय जैसे अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है l और जज से अगले आदेश रद्द करने को कहता है l या फिर जेल जाने की बात करता है कि इस से उसे हाईकोर्ट से छुटकारा मिल जाएगा और जेल में किसी तरह दाल-रोटी भी मिलती रहेगी l जज तो अपना हथौड़ा मार कर चलता बनता है ''द कोर्ट इज एडजर्न !'' और संजय जैसे इंसान अगली तारीखों के भंवर में फंसे हुए तिलमिलाते हुए रह जाते हैं l आखिरकार डिप्रेशन, फ्रस्ट्रेशन  और गुस्से का मारा संजय एक दिन उस हाईकोर्ट में जा कर न्यायमूर्ति के लिए पड़ी कुर्सी के सामने मूत आता है l जैसे बदला निकाल आया हो l ऐसा कर के उस के मन को सुकून मिलता है l शायद आजकल की न्याय व्यवस्था इसी के लायक़ है l मूतने और थूकने के l सहने की हद होती है और उस ने ऐसा कर के अपने मन का आक्रोश निकाल लिया l संजय का ऐसा करना क्या जुर्म है? तो फिर किसी को न्याय ना मिलना भी तो एक जुर्म के समान है l इस जुर्म के लिए जज व वकीलों को अपराध की सूली पर लटका देना चाहिए l किसी दिन नौकरी से इस्तीफ़ा देने को नए मैनेजमेंट ने संजय को ट्रायल केस बनाया था l और यूनियन के तमाम लोगों ने संजय का साथ अनशन में देने से मना कर दिया था l अब उन में से बहुतेरों का हाल संजय जैसा ही हो चुका है l पत्रकारीय  दुनिया के संजय व उस के साथियों के बारे में पढ़ते हुए  दुनिया के सभी पत्रकारों की इमेज भी इन लोगों जैसी ही लगने लगती है l शराब, कबाब, सेक्स और सिगरेट के धुंएं में लिपटी हुई l'


सब की तकलीफ सुर्ख़ियों में बताने वाले ये लोग खुद सुलगते रहते हैं l बिना धुएं के l ऐसे कि जैसे कोई देखे नहीं और न ही पूछे कि, ''ये धुआं कहां से उठता है?'' सुलगना बिन धुंए के सुलगना, जैसे उनकी नियति हो!'' तो इस तरह दिल में सुलगती हुई परेशानियां और मुंह में सुलगती सिगरेट लिए प्रेस क्लबों में शराब पीते हुए समय बिताते हैं ये पत्रकार l और घर पर बीवी को झूठ बताना और अपनी वासना नई-नई लड़कियों से पूरी करना जैसे इन के प्रोफेशन में फैशन सा बनती जा रही हैं l पत्रकार ऐसे तो नहीं हुआ करते थे l अब क्या मीडिया के लोगों ने कोई नई प्रथा बना ली है? हाईकोर्ट का मुकदमा लड़ते-लड़ते संजय और इस उपन्यास का हर पात्र घर और बाहर अपनी-अपनी परेशानियों में उलझा हुआ जीवन के संघर्षों से जूझता रहता है l  मीडिया के पात्र संजय को केंद्र बना कर आज की पत्रकारिता और संपादन की दुनिया में हो रही बातों आदि को ले कर लेखक ने अपने लेखन में पूरी ईमानदारी बरती है l आपने इस उपन्यास में लोगों के चरित्र, काम की मुश्किलें और अपने संघर्षों को झेलते हुए इंसान की इमेज अपने पाठक के सामने रखी है l मीडिया पर फोकस रखते हुए इस उपन्यास में समाज की व्यवस्था, जाति धर्म व सेक्स से सम्बंधित सीन चलते रहते हैं l स्त्री-पुरुष के अवैध संबंध जैसे नित चर्चा का विषय बने रहते हैं l  इस उपन्यास में एक ऐसी दुनिया है जहां हर कोई अपने ही युद्ध में रत है l  इंसान के जीवन का नंगा सच उकेरती आप के लेखन की क्षमता ने मीडिया और न्यायपालिका से जुड़े पात्रों के जीवन का चित्रण करने में पूरा न्याय बरता है l आगे भविष्य में भी आप की लेखनी इसी तरह अग्रसर रहे l ऐसी मेरी कामना है l


समीक्ष्य पुस्तक : 




अपने अपने युद्ध

पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001












1 comment:

  1. टिप्पणी पसंद करने का आभार सहित धन्यबाद l

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