Thursday 27 November 2014

तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी


 पेंटिंग : अवधेश मिश्र

हम , तुम और तुम्हारी सीमाएं
यह तुम्हारी सीमाओं की सरहद
बहुत बड़ी है
कहां - कहां  से तोड़ें
और कि तोड़ें भी कैसे

सीमा संबंधों की होती है
प्रेम की नहीं

तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी
जब तुम और धूप एक साथ मिलोगी
तो मंज़र कैसा होगा
कभी सोचा है तुम ने

तुम्हारे गर्म और नर्म हाथ
इस गुलाबी धूप में
जब बर्फ़ की तरह गलने के बजाय
कुछ पिघलेंगे
तब क्या
तुम्हारी सीमाओं की सरहद भी
नहीं पिघलेगी

मुझे अब लगता है कि
तुम्हारी सीमाओं की अनंत सरहद को
तोड़ने के बजाय
पिघलाना ही प्रेम को पुलकित करना है

[ 27 नवंबर , 2014 ]

No comments:

Post a Comment