Monday 12 January 2015

डलिया भर हरसिंगार-अक्षर

 
गौतम चटर्जी



गौतम चटर्जी

मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि दयानंद पांडेय कवि हैं। मैें उन्हें कवि उस अर्थ में कह रहा हूं जिस अर्थ में मैं निर्मल वर्मा को कवि मानता रहा हूं। तमाम किस्सागोई प्रतिभा-प्रखरता के बावजूद यदि मुझे उन्हें लेखक के अतिरिक्त कथाकार मानना पड़े तो तय करने में मुझे एक उम्र प्रतीक्षा करनी होगी। लेकिन कवि होने की उन की उपस्थिति हिंदी के काव्यसंसार में एक रचनानिष्ठ आश्वस्ति है, ऐसा उन की इन कविताओं को पहली बार पढ़ कर और बार बार पढ़ कर एहसास हुआ।

कविताओं को रेखांकित कर उन पर कुछ कहने से पहले मैं कवि,, कविता और रचनानिष्ठता पर कुछ कहना चाहता हूं।

मेरे लिए कवि होना एक ऋषि होना है। भारतीय विद्या वांग्मय में ऋषि को कवि कहा गया है। ऋषि ही सही अर्थों में कवि होता है। वह इस लिए कवि है क्यों कि उस ने सत्य को देखा है। इस लिए सुभाषित है कि जैसे तपस्यारत ऋषियों के पास स्तुतियां स्वयं चली आतीं हैं उसी प्रकार कवि के पास रचना स्वयं चली आती है। उसे पत्रकार या कथा लेखक की तरह विषय ढूंढ़ना या गढ़ना नहीं पड़ता। थोड़ा असमंजस में होंगे आप कि भला वैदिक ऋषि के पद में आज के कवि को कैसे देखा जा सकता है तो मैं इसे आसान कर देता हूं। पाणिनि ने रचनाकारों की चार श्रेणियां बनाई हैं। प्रथम श्रेणी को उन्हों ने कहा है दृशी। यह शब्द ही कालांतर में ऋषि हुआ है। इस श्रेणी में वे रचनाकार आते हैं जो कविता को देखते हैं लेकिन उन्हें लिखते नहीं। जैसे वैदिक ऋषि या बुद्ध या सुकरात। दूसरी श्रेणी की संज्ञा है प्रोक्ता । ये रचनाकार दृशी की कविता को लिखते हैं या संग्रहीत करते हैं जैसे अश्वघोष या प्लेटो। तीसरी श्रेणी है उपज्ञात की। जो रचनाकार किसी नई विधा की खोज करते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखते हैं। महर्षि पाणिनि ने खुद को इसी श्रेणी में रखा है क्यों कि उन्हों ने व्याकरण की खोज की थी। और अंतिम श्रेणी का नाम है कृत। इस में सभी सामान्य रचनाकार आ जाते हैं जैसे कालिदास से ले कर रवींद्रनाथ ठाकुर तक सभी। कवि कालिदास ने ही दृश्य-काव्य लिखा है जिसे आज हम नाटक कहते हैं। वैदिक काल से मध्यकाल तक नाटक को दृश्य-काव्य कहने की परंपरा रही है। नाटक उस समय एक तकनीकी शब्दावली हुआ करता था जो दस रूपकों के अंतर्गत आता था। दृश्य-काव्य लिखने वाले कवियों ने लेखन के रूप को कविता कहने की जगह काव्यमन को कविता कहा है जो ‘काव्य-मीमांसा’ के रचयिता और आलोचक राजशेखर के शब्दों में, ‘लिखे अनुच्छेदों के काव्यस्पर्श से पता चल जाता है।’ आज हम हिंदी में जिसे गद्य कविता कहते हैं वह कहने की ज़रूरत ही नहीं हैं। गद्य स्वयं में कविता है यदि उस में काव्य-मन का स्पर्श है। इसी अर्थ में निर्मल वर्मा का गद्य कविता है।

पिछले पचास-साठ वर्षों में भारतीय भाषाओं में कविता की भंगिमा में लिखी कविताओं को पढ़ कर कुछ ही कवियों पर ध्यान टिका रहा और अभी तक टिका हुआ है। इन में हिंदी में कुंवर  नारायण और मलयालम में ओएनवी कुरूप का ही नाम फिलहाल ध्यान आ रहा। कुरूप की कविताओं में प्रतीक, रस और ध्वनि उसी प्रकार असाधारण हैं जिस प्रकार की छवियां हमें टॉलस्टॉय, मोपासां या मार्खेस की कहानियों में मिलती हैं। ये दोनों ही कवि अभी हमारे बीच रह कर कविताएं साझा कर रहे हैं।

मुुख्यतः गद्य लेखक दयानंद पांडेय इन्हीं अर्थों में कवि हैं। उन की कविताएं पहली बार कविता-संग्रह के रूप में सामने आ रही हैं और मैं ने भी उन की कविताएं पहली बार पढ़़ी हैं और इस अभिव्यक्ति ने मुझे पूरे मनोयोग से बार-बार पढ़ने को विवश किया है। उन की कहानियां और उपन्यास मैं ने पढ़़े हैं और कहने दीजिए कि कविताओं को पढ़ कर लगेगा नहीं कि रचनाकार वही है। आप को भी प्रिय आश्चर्य होगा। प्रेम का यह जोग, प्रेम एक निर्मल नदी, मैं तुम्हारा कोहरा तुम हमारी चांदनी, यह तुम्हारा रूप है कि पूस की धूप और तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी जैसी कविताओं से प्रतीत हो सकता है कि किसी भी कवि की तरह ये उस की प्रथम कविताएं होंगी लेकिन ऐसा नहीं है। देह का बिंब लगातार पिघलता हुआ है और ऐसे प्रभाव में बदलता हुआ है कि आनंद के सरोवर में कोई अंधेरे का टुकडा़ तैर रहा, पाठक और पारखी दोनों के लिए। जब तब अनुप्रास का प्रयोग करने वाले कवि दयानंद के भावों में प्रेम का यथार्थ-युग्म है, परस्पर विरोधी, जैसे सिर्फ़ हरसिंगार में ही होता है कि पंखुड़़ी का रंग भी खिला और उस की डंडी का रंग भी खिला फिर भी दोनों अलग अलग रंगों के, क्रमशः नारंगी और सफ़ेद , फिर भी गंध के एकात्म में पूर्ण होते हुए। नयन-नयनाभिराम, कोहरे में किलोल जैसी तेईस कविताओं में यह एकात्म गंध मन में सात रंगों का इंद्रधनुष बनाता है जहां सारे रंगों का स्वतंत्र अस्तित्व भी है और एक का दूसरे में विगलन भी। हर रंग दयानंद की हर कविता में आंख बनती हुई है। हर कविता में विपरीत रंगों की समरूप आंखें। अधर, उरोज जैसे मांसल शब्दों के बावजूद कविताएं भाव के स्तर पर रत्यात्मक होती हैं जैसे हमारे चेहरे की दोनों आंखें समरूप होते हुए भी एक दूसरे को देख नहीं पातीं इस लिए पलकें बंद कर एक दूसरे से हृदय में मिलती हैं और रत्यात्मक हो जातीं हैं और जब हमें कोई गहरी नींद से जगाता है तो इस विपरीत रंगों की इस रत्यात्मक अवस्था में विघ्न पहुंचता है और आंखें खुलते ही कुछ तरल सा हमारे स्पर्श में आ जाता है। वह कवि का दुःख है जो उसे अपूर्णता में हरसिंगार की खुशबू तक तो ले जाता है लेकिन हरसिंगार का सच यह भी है कि उषा की पहली छुअन से ही वह अपने वृक्ष देह से अलग हो जाता है। कविता पूरी होने के बाद पूरा दिन न देख पाने में आंख खुलने की ऐसी घटना है दयानंद पांडेय की कविता। मानों बांस की डलिया में हरसिंगार से बने कई अक्षरों का समवाय जो खिलने और सुगंधित होने के लिए काव्य-रात की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस रात को कोई कवि ही देख सकता है। ऐसा कवि ही प्रेम कविता लिख सकता है। दुःख के कोमलतम क्षणों में रिल्के की तरह। ऐसी छवियां हैं यहां । छवियां और ध्वनियां ।

ऐसे कृती के कृृत से हम कृतकृत्य हो सकते हैं।

[ अरुण प्रकाशन , ई-54 , मानसरोवर पार्क , शाहदरा , दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य कविता-संग्रह यह घूमने वाली औरतें जानती हैं में रंगकर्मी और फ़िल्म निर्देशक गौतम चटर्जी की लिखी भूमिका ]

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