Sunday 4 January 2015

आप रहिए अपने घर ,कार्यालय और अपने गैंग में ख़ुदा बन कर इस फ़ेसबुक पर यह खुदाई नहीं चलने वाली

दयानंद पांडेय 

सिद्धांत और व्यवहार में दूरी आदमी को आख़िर तमाशा बना देती है। कम से कम फ़ेसबुक एक ऐसा मंच तो है ही कि सब को पानी की तरह छान देता है। कि आप सचमुच क्या हैं यह लोगों को दर्पण की तरह दिखा देता है । आप राजा हैं कि रंक ? साधू संन्यासी हैं कि पाखंडी ? विचारवान हैं कि विपन्न ? सेक्यूलर हैं कि कम्यूनल? पाखंडी हैं कि कुछ और ? सुंदर हैं कि कुरूप ? किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। 

आप सिद्धांत में ख़ुद को लोकतांत्रिक बताते घूमिए तार्किकता का मसीहा बने रहिए और आचरण में तानाशाह बने रहिए। कुतर्क करते रहिए । यह सारे अंतर्विरोध और इस पर नाज़ आप अपने व्यक्तिगत जीवन में भले जीते रहिए। सार्वजनिक जीवन में यह जीवन अंतत: बेपरदा हो ही जाता है। और फ़ेसबुक पर लाख फर्जी लोग भी उपस्थित हों। पर यहां तो लोग आप की इस हिप्पोक्रेसी की खटिया भी खट से खड़ी कर देते हैं । आप रहिए अपने घर में , अपने कार्यालय में , अपने गैंग में ख़ुदा बन कर पर सार्वजनिक जीवन में ख़ास कर इस फ़ेसबुक पर आप की यह खुदाई तो नहीं ही चलने वाली । इस फ़ेसबुक के हमाम में तो आप को नंगा रहना ही होगा। आप की नंगई नहीं चलने वाली यहां। वह चाहे वैचारिक नंगई हो या आचरण की । आप किसी से खिन्न हो जाइए या जिस तिस को अनफ्रेंड कर दीजिए, ब्लाक कर दीजिए , चाहे विदा हो जाइए । आप का सत्य आप को भले न मालूम हो , लोगों को ख़ूब मालूम रहता है । दिलचस्प यह कि यह लोग जिस को चाहें जो कह लें चाहे जितना बड़ा ढोंग कर लें पर इन पर कोई एक बात संकेत में भी कोई कुछ कह दे तो वह इन का सब से बड़ा शिकार हो जाता है । यह लोग जो कहें वह मूल्यवान होता है , शेष लोग जो कहें वह मूल्यहीन होता है । इन से असहमत होने वाला सांप्रदायिक हो जाता है , भाजपाई हो जाता है। यह सांप्रदायिक और भाजपाई शब्द यह लोग गाली की तरह बरतते हैं। अदभुत यह कि लोग इसे गाली की तरह लेते भी हैं । और कहीं यह कह न दिए जाएं, इस से भय खाते हैं । और यह स्वयंभू तानाशाह राजा बाबू लोग इस का ख़ूब लुत्फ़ लेते हैं । ख़ूब दूहते हैं लोगों को इस एक औज़ार से । भयादोहन की भी एक सीमा होती है । जो एक दिन पार हो जाती है और लोग आप को ठेंगे पर रख देते हैं । तो आप चीत्कार पड़ते हैं । चीख़ पड़ते हैं । लोकतांत्रिक होने का मुखौटा इन का जब कोई उतार देता है , इन की हिप्पोक्रसी का कोई पर्दाफ़ाश कर देता है तो वह इस दुनिया को तज देते हैं , तज देने का ऐलान भी कर देते हैं । इस अंदाज़ में गोया इन के बिना यह दुनिया अनाथ हो जाएगी , विधवा हो जाएगी । और यह देखिए कि भाई लोग विधवा विलाप भी शुरू कर देते हैं। कि हाय , मत जाइए ! लेकिन फ़ेसबुक तो एक शराब है । जैसे अकसर कुछ शराबी , शराब छोड़ने का ऐलान जब-तब करते मिलते हैं , छोड़ते भी हैं । लेकिन पाता हूं कि यह शराबी लोग अकसर शराब की दुनिया में फिर-फिर लौटते रहते हैं । उन का ऐलान और उन का लौटना निरंतर जारी रहता है । तो फ़ेसबुक भी एक शराब ही है । जल्दी छूटती नहीं । दिल की लगी है यह तो । फेसबुक छोड़ने का ऐलान करने वालों को भी फिर-फिर लौटते देखा है । देखता ही रहता हूं । तो भी अभी के फ़ेसबुक छोड़ने का ऐलान करने वाले इन फेसबुकियों को क़ायदे से अगर कोई ऐलान करना ही हो तो उन्हें फ़ेसबुक छोड़ने के बजाए अपने अहंकार को छोड़ने का ऐलान करना चाहिए और कि इस पर पूरी सख़्ती से डटे रहना चाहिए । अहंकार छोड़ देने से उन को तो आराम मिलेगा ही , लोगों को भी सुकून मिलेगा । उन की और लोगों की सारी दुविधा असल में एक शब्द अहंकार में ही छुपी हुई है । वह गांव का गांव छोड़ते जाते हैं । और उन का अहंकार है कि उन का पीछा नहीं छोड़ता । उन की तानाशाही  बढ़ती जाती है, उन का कुतर्क पांव पसारता जाता है । 

बचपन में सुनी एक छोटी सी कथा सुनाता हूं। 

एक गांव में एक उल्लू था । अब हर कोई उसे उल्लू ही कहता था । वह अपने को उल्लू कहे जाने से बहुत नाराज और दुःखी हो गया। गांव छोड़ कर बहुत दूर चला गया।  कोई अस्सी कोस दूर के गांव में । ताकि कोई भी उसे चाहे जो कहे उल्लू तो न कहे ! लेकिन उस नए गांव में भी लोग उसे उल्लू कह कर ही पुकारने लगे । अब वह परेशान ! अंतत: एक व्यक्ति से वह पूछ ही बैठा , ' अस्सी कोस छोड़ली आपन गांव , तू कइसे जनलS उल्लू नांव ! अब उस उल्लू को भला कौन बताता भला जब तुम कि उल्लू हो ही तो यह किसी को बताने की भी क्या ज़रूरत है ? 

लगभग यही स्थिति इन अहंकारी , तानाशाह और कुतर्की लोगों की है । यह लोग चाहते हैं कि इन के अहंकार की लोग पूजा करें ,इन की तानाशाही को लोग उन का लोकतांत्रिक होना मानें और कि उन के कुतर्क को लोग सुतर्क मान लें । अब इस के लिए भले ही उन्हें यह फ़ेसबुक छोड़ना पड़े या यह समाज और देश छोड़ना पड़े ! तो अभी लोग फ़ेसबुक छोड़ रहे हैं ।  तो क्या यह लोग बाहर की दुनिया में अहंकार से छुट्टी पा जाएंगे ? लोकतांत्रिक मान लिए जाएंगे ? या कि माने जाते हैं ? कुतर्क छोड़ कर सुतर्क की राह पर आ जाएंगे ? या फिर गांव के उस उल्लू की गति को ही प्राप्त होंगे ? ख़ुदा जाने ! फ़िलहाल तो यह लोग बारी-बारी फ़ेसबुक की महफ़िल छोड़ने का ऐलान जारी रखे हैं ! इस ऐलान में भी इन का अहंकार कुछ इस भाव में जागता दीखता है कि फ़ेसबुक तो निकृष्टों और अधम लोगों की दुनिया है । कीड़े-मकोड़ों की दुनिया है । इन के लायक़ नहीं । वह कहां इस घृणित दुनिया में आ कर फंस गए थे भला ! तो इन सभी को इन का ऐलान मुबारक़ ! इन का अहंकार मुबारक़ ! और हमें हमारा यह फ़ेसबुक !

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