Friday 9 January 2015

भारतीय पत्रकारों के लिए तो शारबोनिये की बात बिच्छू के डंक की तरह है

मेरे पास बीवी बच्चा गाड़ी कर्जा कुछ नहीं है। जो मैं कह रहा हूं वह शायद थोड़ा मगरूर लगे लेकिन घुटनों के बल जीने की बजाय मैं खड़े हो कर मरना पसंद करूंगा । पेरिस में आतंकवादियों द्वारा मार दिए गए  “चार्ली हेब्दो” पत्रिका के संपादक शारबोनिये ने यह बात 2012 में 'ल मॉन्द' में एक इंटरव्यू में कही थी । 


तो क्या अब ईमानदार और निर्भीक पत्रकार होने के लिए अब कबीराना अंदाज़ ज़रुरी हो चला है ? पेरिस में आतंकवादियों द्वारा मार दिए गए पत्रिका “चार्ली हेब्दो” के संपादक शारबोनिये के एक इंटरव्यू के हवाले से अगर बात करें तो हां ! इस इंटरव्यू के कुछ हिस्से पत्रकारों के लिए जैसे दर्पण का काम करते हैं । कम से कम भारतीय पत्रकारों के लिए तो शारबोनिये की बात बिच्छू के डंक की तरह है । दलाली और भड़वागिरी में पस्त भारतीय पत्रकारों के लिए हालां कि बहुत काम की बातें नहीं हैं शारबोनिये की बातें पर काबिले गौर तो हैं ही । इस लिए भी कि खुदा के बारे में चाहे एक बार नासमझी कर भी लो लेकिन मुहम्मद के बारे में ख़बरदार ! का आलम है यहां तो।

2012 में 'ल मॉन्द' में एक इण्टरव्यू में अपना पक्ष समझाते हुए “चार्ली हेब्दो” पत्रिका के सम्पादक शारबोनिये कहा था,  मुझे नहीं लगता कि मैं कलम से किसी को मार रहा हूं । मैँ कोई ज़िंदगी ख़तरे में नहीं डाल रहा हूं । जब कि ऐक्टिविस्टों को जब अपनी हिंसा को सही ठहराने के लिये किसी वजह की ज़रूरत पड़ती है, तब वे हमेशा कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेते हैं । 

शारबोनिये का कहना था कि वे तब तक इस्लाम का ऐसा उपहास करते रहेंगे जब तक कि कैथोलिसिज़्म की तरह इस्लाम भी बिल्कुल 'banal' यानी साधारण तथा सामान्य नहीं हो जाता। यानी तब तक जब तक कि उस के समर्थक यह दुराग्रह बनाए रखेंगे कि उन को फ़्रांस की अपने सेक्यूलरिज़्म पर गर्व करने वाली बौद्धिक परंपराओं पर कुठाराघात करने वाली सुरक्षाएं प्रदान की जाएं। 


“चार्ली हेब्दो” के असली निशाने पर इस्लाम नहीं बल्कि कट्टरपंथ था । पत्रिका के कुछ मुखपृष्ठों का संकेत तो वाकई यह है कि इस बहस में पैग़म्बर खुद शार्लीं अब्दो का पक्ष लेंगे। अक्तूबर 2014 के एक मुखपृष्ठ पर दिखाया गया है कि आइ एस आइ एस का एक उग्रवादी खुद पैग़म्बर साहब का सिर काट रहा है। 2006 के एक मुखपृष्ठ में दिखाया गया है कि पैग़म्बर साहब अपना चेहरा ढक कर विलाप कर रहे हैँ कि " इट्स हार्ड टु बी लव्ड बाई ईडियट्स।"

सोचिए कि शारबोनिये जानते थे कि देर सबेर वह मार दिए जाएंगे ।  पर गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह मार दिया जाना उन्हें क़ुबूल था । पर आज के भारतीय पत्रकारों की तरह आतंकवादियों के आगे घुटने टेकना नहीं । यहां भारत में आलम तो यह है कि आतंकवादी तो बहुत दूर की चीज़ है मामूली गुंडों , भ्रष्ट नेताओं , अफसरों के आगे भी मौका मिलते ही आत्मा गिरवी रख कर उन के आगे रेंगने लगते हैं । चैनल, अख़बार उन को समर्पित कर देते हैं उन को महिमामंडित कर देने के लिए । पेड न्यूज़ के आलम में पत्रिका “चार्ली हेब्दो” और उस के संपादक शारबोनिये तो एक सपना ही है भारतीय पत्रकारिता में में फिलहाल । आख़िर भारत में किसी भी भाषा के एक पत्रकार में शारबोनिये की तरह यह कहने और करने की कूव्वत या हैसियत है भला कि मेरे पास बीवी बच्चा गाड़ी कर्जा कुछ नहीं है। जो मैं कह रहा हूं वह शायद थोड़ा मगरूर लगे लेकिन घुटनों के बल जीने की बजाय मैं खड़े हो कर मरना पसंद करूंगा । यहां तो एक धमकी और एक लीगल नोटिस में ही नौकरी दांव पर लग जाती है , पैंट गीली हो जाती है । या एक विज्ञापन की खेप में अख़बार या चैनल का गिरवी हो जाना रवायत में जब हो तो कहां से आख़िर शारबोनिये की तरह कोई पत्रकार या संपादक यह कहने के लिए कलेजा लाएगा ? इसी लिए मैं ने शुरू में ही कहा कि भारतीय पत्रकारों के लिए तो शारबोनिये की बात बिच्छू के डंक की तरह हैं। 



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