Monday 8 June 2015

देह की छांह तलाशते लोक कवि


नवीन मठपाल 

लोक जीवन और शहरी जीवन का कंट्रास्ट एक साथ बांचना हो तो दयानंद पांडेय का नया उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं जरूर पढ़ना होगा। दरअसल लोक कवि अब गाते नहीं सिर्फ एक भोजपुरी गायक का संघर्ष, उत्थान और फिर पतन की गाथा भर नहीं है। भोजपुरी समाज के बहाने समूचे समाज के क्षरण की भी गाथा है। लोक जीवन में दिन-ब-दिन बदलाव और आर्केस्ट्रा में समाती जाती लोक गायकी के बहाने दयानंद पांडेय ने इस उपन्यास में कई ऐसी असंगतियों, विसंगतियों और त्रासदी के ऐसे कई तार छुए हैं जो हम सबके सामने होते हुए भी अपरिभाषित हैं। संवादों की एक बानगी देखिए-

‘अच्छा जो वह लड़की बोती है अंगरेजी में आप समझते हैं ?’

‘हां समझता हूं।’ लोक कवि बड़ी सर्द आवाज़  में बोले।

‘का ? आप अब अंगरेजी भी समझने लगे ?’ पूछने वाला भौंचकिया गया। बोला, ‘कब अंगरेजी भी पढ़ लिया लोक कवि जी आपने?’

‘कब्बो नहीं पढ़ा अंगरेजी!’ लोक कवि बोले, ‘हिंदी तो हम पढ़ नहीं पाए अंगरेजी का पढ़ेंगे?’

‘पर अभी तो आप बोल रहे थे कि अंगरेजी समझता हूं।’

‘पइसा समझता हूं’ लोक कवि बोले, ‘और ई अंगरेजी अनाउंसर ने हमारा रेट हाई कर दिया है तो ई अंगरेजी हम नहीं समझूंगा तो कवन समझेगा? (पृष्ठ 20, 22) एक संवाद और गौर करें- ‘उनका चेला मिनिस्टर उन की बात सुन कर मुस्कुराया। बोला, ‘पंडित जी, आप के पास एक साइकिल तक तो है नहीं, ये ट्रक के टायर का क्या करेंगे?’

‘पेट भरुंगा।’ त्रिपाठी जी बम-बम स्टाइल में बोले, ‘मिनिस्टर बन गए हो तो दिमाग खराब हो गया है। नहीं जानते ट्रक के टायर का क्या करुंगा ? (पृष्ठ 81)

लोक कवि अब गाते नहीं के यह और ऐसे कई संवाद, कई दृश्य बरछी की तरह घाव करते चलते हैं। कई दृश्य तो ऐसे बन पड़े हैं कि लगाता है जैसे कोई सिनेमा देख रहा हो। जैसे घटनाएं बिल्कुल सामने घट रही हों। गांवों में भी फैल रहे एड्स जैसी विपदाएं और हरिजन एक्ट के दुरुपयोग के दुर्निवार दृश्य भी लोक कवि अब गाते नहीं में पूरी ताकत से उपस्थित हैं।

न्योता खाने वाले भुल्लन पंडित और विलेज बैरिस्टर गणेश तिवारी इस उपन्यास के जीवंत चरित्रा हैं। पर इन सबसे भी ज्यादा जीवंत चरित्र हैं चेयरमैन साहब। वह चेयरमैन साहब जो लोक कवि के गार्जियन हैं और अपनी बेबाक लंपटाई के लिए कुख्यात भी। गांव में धाना और मिसराइन जैसी नायिकाएं भी हैं लोक कवि की जिंदगी में। तो मीनू जैसे ढेरों डांसरों में भी देह की छांह तलाशते लोक कवि भटकते मिलते हैं। अपने-अपने युद्ध उपन्यास के मार्फत दयानंद पांडेय कोई दो साल पहले चर्चा में आये थे। हंस में राजेन्द्र यादव ने चार पेज का संपादकीय लिखा तो जनसत्ता में राजकिशोर ने अपने कालम का विषय बनाया। यत्र तत्र समीक्षाओं, टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई थी। तो इस लिए कि अपने-अपने युद्ध को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में इस उपन्यास के खिलाफ कंटेप्ट आफ कोर्ट का मुकदमा दायर हो गया था। तो लोक कवि अब गाते नहीं में भी अदालती दांव पेंच तो हैं पर कंटेंप्ट आफ कोर्ट के स्वर में नहीं, यातना की आग में सने हैं।

अपने-अपने युद्ध में न्यायमूर्तियों और न्याय व्यवस्था की खबर ली गई थी, लोक कवि अब गाते नहीं में विलेज बैरिस्टरों और वकीलों की खबर ली गई है। अपने-अपने युद्ध पर एक बड़ा आरोप अश्लीलता का भी लगा था। और सारी कथा पर ‘देह’ भारी बतायी गयी थी। लोक कवि अब गाते नहीं भी देह से बरी नहीं है। पर उस घनत्व में तो नहीं हैं। हैं और फिर जरा सलीके से हैं- ‘दोनों मदमस्त पड़े रहे। एक-दूसरे को भींचते हुए। भींगते रहे सावन की तेज बौछारों में। बौछारें जब फुहारों में बदलने लगीं तो मोहन का पुरुष फिर जागा। धाना की स्त्री भी सोई हुई नहीं थी। एक देह की बारिश दूसरी देह में और घनी हो गई। और जब मोहना धाना के भीतर फिर बरसा तो धाना उसे दुलारने सी लगी।’ देह के और भी कई प्रसंग यत्र तत्र पसर पड़े हैं। पर जो बात सबसे ज्यादा छन कर सामने आती है वह है भोजपुरी भाषा और उसकी लोक गायकी के बिलाते जाने की विलाप था ही है लोक कवि अब गाते नहीं में। और आखिर में तो वह हिला कर रख देती है- फिर भोजपुरी ही क्यों ?

यह विलाप कथा तो हर किसी लोकभाषा की है। हमारी लोक भाषाएं, हमारी लोक गायकी और हमारा ‘लोक’ जिस तरह विलुप्त हो रहा है, उसे बचाने की छटपटाहट ही लोक कवि अब गाते नहीं को महत्वपूर्ण बनाती है और बहस तलब भी। उपन्यास के फ्लैप पर एक बात सच ही दर्ज की गयी है कि लोक गायकी पर निंरत चल रहा है यह जूता ही तो ‘लोक कवि अब गाते नहीं का शोक गीत है। और संघर्ष गीत भी !

[ राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ] 


समीक्ष्य पुस्तक :

 लोक कवि अब गाते नहीं
पृष्ठ सं.184
मूल्य-200 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003

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