Monday 8 June 2015

दृष्टि की सीमा


ओम निश्‍चल

दयानंद पांडेय ने अपने उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं में एक लोक गायक के पतन की कहानी ठेठ देशज मुहावरे में लिखी है। 

उपन्यास में एक जाति का भर लोकगायक गांव से उभरता है। कुछ ही दिनों बाद एक सभा में सुन कर एक एम.एल.ए. उसे लखनऊ ले आते हैं जहां वह लोक कवि अपने मूल लक्ष्य से भटककर सत्तारूढ़ दल के प्रचार का भोंपू बन जाता है कुछ ही दिनों में सूबे के मुख्यमंत्राी से अपने संबंधों और एक पत्रकार से मैत्राी के बल पर लखटकिया पुरस्कार पाकर गांव-शहर में एक हीरो की हैसियत पा लेता है। किंतु इस बीच धीरे-धीरे उसकी मौलिकता बाजारू गवैयेपन और आर्केस्ट्रा संस्कृति की भेंट चढ़ चुकी होती है।

लखनऊ में एक रिटायर्ड चेयरमैन की छत्रछाया और एक पत्रकार के सान्निध्य से वह लोकगायन को उस अधोगति तक पहुंचा देता है जहां चेयरमैन, पत्रकार तथा लोककवि सभी संगीत मंडली की कन्याओं से अपनी दुष्ट वासनाओं को बरज नहीं पाते।

पांडेय भले ही कुछ और कहें, भोजपुरी गायकी और समाज का यह क्षरण दरअसल उपन्यासकार को तयशुदा दृष्टि और एक गायक मात्र की चरितचर्चा को केन्द्र में रखकर देखा गया क्षरण है, समाज और संस्कृति का क्षरण नहीं। बल्कि ऐसे किसी गहरे विजन का उत्खनन भी इस उपन्यास में नहीं है जिससे भाषा की संस्कृति पर मंडराते खतरे की निशानदेही की जा सके। हां, खास तरह की दिलचस्पी रखने वाले पाठकों के लिए यह उपन्यास किसी ‘अंगड़ाई लोक’ से कम नहीं।

[ आऊटलुक में प्रकाशित ]


समीक्ष्य पुस्तक :
 लोक कवि अब गाते नहीं
पृष्ठ सं.184
मूल्य-200 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003

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