Saturday 3 October 2015

प्रेम के शून्य को हेरते-हेरते सुलोचना की सुरसतिया का अचानक प्रेम में आर्यभट्ट हो जाना




किसी बहुत सुन्दर स्त्री के चेहरे सा है एक कमरा
जो है यादों के कैनवास पर गुलाबी और आकर्षक
जिसमें माथे की बिंदी सा है सजा कमरे का लाल बल्ब
जहां  एक जोड़ी छिपकली देखती है एक-दूसरे को दूर से
जो बनाता है हँसुली सा आकार; हँसुली जो है फंसी गले में

ऐसी सुंदर कविताएं लिखने वाली , सुंदर चेहरे और देहयष्टि वाली सुलोचना वर्मा ऐसी ही हंसुली की तरह मन में फंसी मिलती हैं। जब इन की मासूम और मांसल कविताओं को पढ़ता हूं । जब इन के खींचे गए सुंदर फ़ोटो देखता हूं। यह हंसुली और गहरे बसती जाती है मन में जब-तब। सुलोचना की कविताओं के जाल में किसी मछली की तरह फंसा पाता हूं । लाख कोशिश के बावजूद इस जाल से निकल नहीं पाता । और मन करता है कि चीनी का पराठा खाते हुए किसी बच्चे की तरह उन का आंचल पकड़ लूं । और उन की एक-एक रवा मीठी मुस्कान में खुद को भी बसा लूं । उन की कविताओं में बसी चहक में खुद को किसी फुदकती गौरैया की तरह शुमार कर लूं । जीवन के सावन में शामिल हरे ज़ख्म को और मन के इंद्रधनुष के कंट्रास्ट को किसी एस एच रज़ा की पेंटिंग जैसा रच कर घर की दीवार पर टांग दूं । जैसे उन की खिंची फोटुओं में छलकता है जीवन , छलकती है हरियाली।  उन की खुद की फोटुएं इस तरह फुदकती फिरती हैं उन के सुंदर चेहरे में गाफिल हो कर कि मुझ जैसे अनाड़ी को और स्त्री फ़ोटो खिंचवा रही है जैसी कविता रचनी पड़ जाती है । कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह बंगाल निवासी बाला कविता ज़्यादा अच्छी लिखती है कि फ़ोटो ज़्यादा अच्छी खींचती है कि खुद ज़्यादा सुंदर दिखती है । ठीक नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है वाली बात हो जाती है । हालां कि वह लिखती हैं : 

आज तुम्हारी आँखों में
किसी और की परछाई है
तुम्हारे होठों पर हँसी की चटाई
किसी और ने बिछाई है


पिता में ब्रह्मांड के दर्शन करने वाली , पिता के दोमट मिट्टी के कण में अपनी उर्वरा हेरने वाली यह सुलोचना हवा के बदलते रुख का भी जब अपनी कविता में डाक्यूमेंटेशन करती दिखती है तो कविता की पुरवा भी अपनी इबारत में दहकने लगती है । वक्त का सरौता जाने कितनी कड़वी कसैलियां कूट देता है । कोई इंद्रप्रस्थ कैसे अप्रासंगिक होता है सुलोचना की कविता का आकाश और उस का अंदाज़ पूरी विकलता के साथ बांचता मिलता है । सुलोचना अपनी कविता में इस तिक्तता के साथ बांच देती हैं कि एक चरवाहा कैसे तो सत्ताच्युत हो कर रह जाता है । सुलोचना के इस इंद्रप्रस्थ में धृतराष्ट्र , दुःशासन सब हैं पर कृष्ण कैसे तो अनुपस्थित हो जाता है।  ऐसे कि अब उसे कोई कृष्ण नहीं मानता । सुलोचना की कविता के रजिस्टर में कृष्ण और समाज की यह यातना इतनी आहिस्ता से दर्ज होती है कि दिल धक से रह जाता है :
जहां अब भी रहते हैं धृतराष्ट्र और दुःशासन
अपने-अपने आधुनिक व अद्यतन रूप में

उसे अब कृष्ण कोई नहीं मानता !

सुलोचना की कविता के रजिस्टर में आतंकवाद के प्रहर में भी हरे घास का मैदान और तारों से भरा आकाश देखने की लालसा उपस्थित मिलती है , एक गहरी आश्वस्ति की तरह । आरक्षण की रेल का विवरण भी सुलोचना के यहां उपस्थित है । घर से भागी हुई लड़कियों के कातर स्वर भी । और कि प्रेम को गुज़रे वक़्त में बांचने की अविकल छटपटाहट की इबारत में घायल जुबान में यह दर्ज करना कि :

ठीक ऐसे किसी समय में क्या करुँगी मैं?
रख दूँगी प्रेम के फ़र्न को वक़्त की फ़ाइल में
बड़े जतन से हर्बेरियम स्पेसिमेन सा
देखा करुँगी खोलकर फ़ाइल गाहे-बगाहे
थोड़ा शोक मना लूंगी
फ़र्न में क्लोरोफिल के नहीं रहने का

मैंने वनस्पति विज्ञान पढ़ा है !

सुलोचना की कविताओं में प्रेम के अनगिन पाठ हैं । प्रेम की छटपटाहट और छन्न से उभरती उस की आवाज़ भी। अपना एक नया अर्थ , एक नई लय की गूंज के साथ :
कि बारिशों से मैं छाते को बचाती रही
और मुझे बारिशों से प्रेम सा होता रहा


 सुलोचना की जो सब से पहली कविता मैं ने पढ़ी थी बीते बरस वह थी , कवि की कविता । तो मन में एक अजीब सा तनाव तंबू तन गया था । खास कर यह पढ़ कर कि  ; कवि अब कविता नहीं लिखता / लिखता है प्रेम ! प्रेम की यह पुलकित कैफ़ियत कविता में सुलोचना ही दर्ज कर सकती हैं । फिर सुलोचना की कविताएं अकसर खोजने और पढ़ने की कुलबुलाहट मन में दस्तक देने लगी ।  सुलोचना की कुंआ जैसी कविताएं भी मन में एक अजब स्वाद घोलती हैं । कुंआं और नानी का जो बिंब सुलोचना रचती हैं अपनी कविता में वह कविता के ही नहीं संबंधों और जटिल जीवन की आंच का भी एक नया और झन्नाटेदार विवरण उपस्थित करता है। स्त्री यातना की कविता इस कुआं में नानी का यादों के अंधकूप में रहने का जो जनाजा मन में अनायास बैठ जाता है वह नानी के वैधव्य जीवन का ही नहीं सामाजिक ताने - बाने की गिरह भी खोलता है । सुलोचना की कविता में नानी ही नहीं मां भी चांद की तरह झांकती हैं । जिसे उन की उन दिनों कविता में निहारा जा सकता है । निहार कर मां की विह्वलता के चांद को नज़र उतारने की तरकीब में उस की साड़ी के किनारे की ज़री भी आंख बंद कर देखी जा सकती है । सच्चाई है मां  में वह लिखती ही हैं कि ; मां है चट्टानों पर लिखी गई एक दुआ / जिसे पढ़ते हैं सभी धर्मों के लोग / अपनी अपनी भाषा में / ईश्वर अफवाह है; सच्चाई है मां ! माया के बाज़ार में एक झोला दुःख की तरह । आम्रपाली सी मीठी यादों में दंश की अनलिखी इबारत की तरह । शीतयुद्ध में बसे आर्त्तनाद की तरह । सुलोचना के यहां कुंआं और नानी का बिंब है तो दादी और बाबा की यादों का गलियारा भी । चिपकता है जैसे डाक टिकट लिफाफे से / जुड़ा था वैसे ही लोगों से दादी का सम्बन्ध। और कि ; दादी ने छोड़ी माला और खुद चली गयी देव-देवियों के पास / कि कितना भी मँहगा लगा हो डाक टिकट, वहाँ चिठ्ठी नहीं पहुंचती । नानी हों , दादी हों, मां हों और बेटी न हो यह भला कैसे मुमकिन है । सुलोचना की कविता के संसार में बेटी होने का दंश भी ऐसे ही उबलता है जैसे कोई नदी बाढ़ में । बेटियों तुम कहना सीख लो कि तुम्हें नमकीन पसंद है । सुलोचना की दो चोटी वाली लड़की कविता की जो मार है वह अप्रतिम और अलौकिक है ; ना इतराना दो चोटी वाली लड़की / जो कह दे तुम्हें कोई गुलाब का फूल। 

तो प्रेम की ही नहीं , कविता की ही नहीं , जीवन की बदलती केमेस्ट्री और गणित की तरह जटिल होती स्थितियां भी हमारे समय के दर्पण में उपस्थित होती हैं । प्रेम का विलय उदासीनता में तलाशती सुलोचना की कविताएं जब कहती हैं कि शिक्षा करेगी तय प्रेम का हश्र / समय की किताब में। तो प्रेम की यह अविकल इबारत अपनी नई करवट  के साथ नया व्याकरण भी रचती है । कविता की भी और प्रेम की भी । या कि ; चखा है स्वाद जबसे तुमने उस आम की गुठली का / छोड़ आई थी जिसे मैं खाकर तुम्हारी छोटी सी रसोई में । प्रेम की यह औचक मांसलता बहुत कम मिलती है । जीवन में भी और कविता में भी । और फिर इस सवाल का भी क्या करें ? अब कौन तय करेगा कि स्वप्न से ज़रूरी है प्रेम / या प्रेम से ज़रूरी कोई स्वप्न है जीवन में ! लेकिन नहीं , प्रेम के शून्य को हेरते-हेरते सुलोचना की सुरसतिया अचानक प्रेम में आर्यभट्ट हो कर उपस्थित मिलती है तो प्रेम ही नहीं चौंकता , कविता में भी यह औचक सौंदर्य बन कर उपस्थित हो जाता है । इसी लिए कई बार मुझे लगता है कि सुलोचना अपनी कविता में जब-तब कैमरा ले कर खड़ी हो जाती हैं । और प्रेम और जीवन की कई-कई मनोहारी फ़ोटो, फोटो दर फ़ोटो खींच कर हमारे सामने रख देती हैं । एक मद्धिम संगीत की तरह । इसी तरह वह बतौर फ़ोटोग्राफ़र अपनी फ़ोटुओं में कलम ले कर कविता रचती दिखती हैं। किसी दुःख का , किसी बंद किवाड़ का , किसी मचलती हरियाली और हरियाली में मचलती स्त्री का । विषय कुछ भी हो सकता है । लेकिन उस फ़ोटो में उभरेगी एक कविता ही । कविता विराट भी हो सकती है , सूक्ष्म भी । संवेदना से सिक्त भी हो सकती है और जीवन की किसी रंग को जंगल में भी उपस्थित कर सकते हैं । बाज़ार को भी बांचते मिल सकते हैं । विपत्ति भी मिल सकती है उन के फोटुओं में भी और कविता में भी अचानक । इस तरह चलते हुए ; गांव वाले यहाँ तक आते तो हैं तेज क़दमों से चलते हुए / पर ठिठक कर हैं रुक जाते कि विपत्ति अचानक ही है आती। सुलोचना की कविताओं में इतिहास , विज्ञान और उन के तर्क भी मय संवेदना के सिंघाड़े की लतर की तरह इस छोर से उस छोर तक फैले मिलते हैं । एक दूसरे से जुड़े हुए । लेकिन पानी के भीतर-भीतर । एक दूसरे से सवाल पूछते , गुत्थमगुत्था। खदबदाहट की कई-कई इबारतें बांचती सुलोचना की कविताओं की यात्रा और उस की मंज़िल लेकिन बस एक ही है । वह है हृदय तक पहुंचने की । और वह पहुंचती भी हैं , पहुंचाती भी हैं । बचपन कविता में वह लिखती भी हैं ; ज़िंदगी बाईस्कोप सी है / बस रील की जगह / बचपन घूम रहा है। कंप्यूटर मैनेजरी की नौकरी करने वाली सुलोचना की कविता सचमुच एक बाईस्कोप सरीखी ही है । उन की कविता के हार्डवेयर में जिंदगी के बहुतेरे साफ्टवेयर समाये हुए हैं। यह इन साफ्टवेयरों का ही कमाल है कि वह जिंदगी की, सुख-दुःख की ,जद्दोजहद की हंगामाखेज़ तस्वीरें भी बड़ी सादगी और बड़ी शार्पनेस के साथ परोसती हैं । लेकिन पिन की तरह चुभोती हुई । यही उन की कविता की ताकत है । ज़िंदगी और प्रेम के पाग में पगी सुलोचना वर्मा की कुछ कविताएं आज उन के जन्म-दिन पर यहां प्रस्तुत हैं । सुलोचना वर्मा आप ऐसे ही धार-धार लिखती रहिए , सदाबहार फ़ोटो खींचती रहिए , खूब सुंदर दिखती रहिए । ताकि हम जैसे आप के प्रशंसकों का जीवन भी सुंदर बना रहे ।  


कवि की कविता
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कवि को लिखना है काजल, उमस भरे एक दिन को
कविता समेट लेती है बादल अपनी आँखों में
दमक उठता है प्रेम का सूरज आसमान पर
कवि बारिश की चाह करता है

कवि दर्ज करता है चुम्बन प्रेयसी की गर्दन पर
और खोल देता है क्लचर बालों से
कविता महसूस करती है फिसलते हुए बालों को काँधे पर
फिर चखती है कवि की जुबान का स्वाद देर तक
कवि छेड़ देता है साज निर्वसना की देह का
कविता गुनगुनाने लगती है अवरोह से आरोह तक
किल्लोल भरती हैं प्रेयसी के पैरों की उंगलियाँ
रिसने लगता है प्रेम रसायन बन देह से
कवि साधता है सांप्रयोगिक तंत्र प्रेयसी पर
कविता झूमने लगती है चरमोत्कर्ष की सीमा पर
प्रेयसी के पंख फहराने लगते हैं
मंत्रमुग्ध कर जाता है कवि को
कविता का अनवरत लयबद्ध स्पंदन
कवि लिखता है पूर्णविराम
प्रेयसी की पीठ के बाएँ हिस्से में
कवि अब कविता नहीं लिखता
लिखता है प्रेम !


प्रेम स्वप्न
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तुम आते हो मेरे जीवन में एक दिवास्वप्न की तरह
और छोड़ जाते हो कई प्रश्नचिन्ह मेरी आँखों के कोरों पर
स्वप्न टूट जाता है ; प्रश्न चुभने लगते हैं
मैं अपने आंसू की हर बूँद पर डाल देती हूँ एक मुठ्ठी रेत
थोड़ा और भारी हो उठता है मन पहले से
और तैरने लगते हैं कई सवाल जेहन में

तुम जीते हो स्वप्न हकीकत की ठोस ज़मीन पर
और जिंदगी जीना होता है किसी प्रयोग सा तुम्हारे लिए
चखा है स्वाद जबसे तुमने उस आम की गुठली का
छोड़ आई थी जिसे मैं खाकर तुम्हारी छोटी सी रसोई में
महसूस करती हूँ कसैलापन तुम्हारे शब्दों की तासीर में
मैंने अपने स्वप्न में भर लेना चाहा केवल प्रेम
जबकि प्रेम को पाना है किसी स्वप्न सा तुम्हारे लिए
जहाँ तुम्हारे कई सपनो में से एक सपना भर हूँ मैं
मेरे हर सपने की दीवार पर कीलबद्ध हो तुम
आज जब तौल बैठे हो तुम मेरे प्रेम को किसी सपने से
सोचती हूँ क्यूँ नहीं पढ़ा प्रेम का प्रतियोगिता दर्पण मैंने
कि नहीं है जवाब तुम्हारे पूछे गए प्रश्नों का मेरे पास
अब कौन तय करेगा कि स्वप्न से ज़रूरी है प्रेम
या प्रेम से ज़रूरी कोई स्वप्न है जीवन में !


शून्य
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हो जाती हैं महत्वपूर्ण अक्सर कई छोटी-छोटी बातें
जैसे होता है स्थान बड़ा शून्य का अंकगणित में
हो जाता है शून्यमय विवेक, शून्य का नाम ही सुनते
विलीन हो जाना होता है हमें भी शून्य में ही एक दिन
नहीं बताया आर्यभट्ट ने कि यह सत्य था शाश्वत युगों से

नहीं बताया सरसतिया ने भी एक राज अपने प्रेमी से
कि वह गयी है जान कि वह है एक ऐसी शून्य
जिसके पहले लगे हैं कई अंक प्रेमी के अंकगणित में
कि शून्य हो गये हैं भाव उसकी झूठी आँखों के
और शून्य हो गया है स्वाद उसके होठों का
सरसतिया अब प्रेम में आर्यभट्ट बन रही है
फिर ज़रूरी नहीं होता हर बात का बताये जाना !!!


कुआं
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मुझे परेशान करते हैं रंग
जब वे करते हैं भेदभाव जीवन में
जैसे कि मेरी नानी की सफ़ेद साड़ी
और उनके घर का लाल कुआं
जबकि नहीं फर्क पड़ना था
कुएं के बाहरी रंग का पानी पर
और तनिक संवर सकती थी
मेरी नानी की जिंदगी साड़ी के लाल होने से

मैं अक्सर झाँक आती थी कुएं में
जिसमे उग आये थे घने शैवाल भीतर की दीवार पर
और ढूँढने लगती थी थोड़ा सा हरापन नानी के जीवन में
जिसे रंग दिया गया था काला अच्छी तरह से
पत्थर के थाली -कटोरे से लेकर, पानी के गिलास तक में
नाम की ही तरह जो देह था कनक सा
दमक उठता था सूरज की रौशनी में
ज्यूँ चमक जाता था पानी कुएं का
धूप की सुनहरी किरणों में नहाकर
रस्सी से लटका रखा है एक हुक आज भी मैंने
जिन्हें उठाना है मेरी बाल्टी भर सवालों के जवाब
अतीत के कुएं से
कि नहीं बुझी है नानी के स्नेह की मेरी प्यास अब तक
उधर ढूँढ लिया गया है कुएं का विकल्प नल में


उन दिनों
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नहीं उगे थे मेरे दूध के दांत उन दिनों
फिर भी समझ लेती थी माँ मेरी हर एक मूक कविता
जिसे सुनाती थी मैं लयबद्ध होकर हर बार
जैसे पढ़ा जाता है सफ़ेद पन्ने पर ढूध से लिखी इबारत को
ममता की आंच में स्पष्ट हो उठता था मेरा एक-एक शब्द

माँ ने अपनी कविता में मुझको कहा चाँद
और उस चाँद से की मेरी नज़र उतारने की गुज़ारिश
चाँद ने बदले में लिख डाली कविता
अपनी रौशनी से मुझ पर
उन दिनों चाँद पर एक औरत
दोनों पाँव पसारे
रेशमी धागों से गेंदरा सिला करती थी
जिसके किनारों पर लगे होते थे
मेरी माँ की साड़ी के ज़री वाले पार


माया
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1.
वह गयी बाजार लेने सौदा
और ले आई एक झोला दुःख
पाव भर अवसाद
एक कनमा तिरस्कार के साथ
कई किलो बेबसी
कि कुछ दुःख बाजारू थे

2.
फूलों की तरह रंगीन था उसका दुःख
उसकी आँखों में था दुःख रक्त जवा का
जमा था सीने में नीला अवसाद अपराजिता का
दहक रहा था उसके अंतस में तिरस्कार का पलाश
बेबसी महक रही थी हर पल बन रजनीगंधा
जबकि कुछ भी नहीं था सुन्दर उसके जीवन में फूलों जैसा
3.
उसने ख़ारिज किए दुनिया के तमाम रंग औ' बाजार
और जा बैठी रूखे बाल लिए जिंदा ही अंतिम स्थान पर
जलती चिता पर उसके अट्टहास ने धरा मायावी रूप
माया से हुए लोग आकर्षित, चर्चा हुई उसकी दिव्यता की
भरने लगी उसकी झोली सस्ते और मँहगे चढ़ावों से
कि माया के बाजार से बड़ा कोई बाजार नहीं होता
सुख के रंगीन बाजार में भटकती है अदृश्य माया!!!


दो चोटी वाली लड़की
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ना इतराना दो चोटी वाली लड़की
जो कह दे तुम्हें कोई गुलाब का फूल
कि जो ऐसा हुआ
ताक पर रख दी जायेगी तुम्हारी बौद्धिकता
फिर तुम्हें दिखना होगा सुन्दर
तुम्हें महकना भी होगा
फिर .........
चर्म इन्द्रि से देखना चाहेंगे लोग तुम्हारा सौन्दर्य
और लगभग भूल जायेंगे विलोचन की उपस्थिति
उमड़ पड़ेंगे लोग लेने तुम्हारा सुवास
कुछ लोग महानता का ढोंग भी रचेंगे
और तुम्हारा कर देंगे उत्सर्ग किसी देवता के चरणों में
इन सभी परिस्थितियों में
बिखर जायेंगी तुम्हारी पंखुडियाँ
और तुम्हे मुरझा जाना होगा
क्या जानती हो दो चोटी वाली लड़की
नहीं ख़त्म होगी बात तुम्हारे मुरझा जाने पर
और समाज सोचेगा भी नहीं
कि वह कर देगा व्यक्त अपनी मानसिक अस्‍वस्‍थता को
जब जब करेगा प्रश्न तुम्हारे यौन शुचिता की
और तुम बनी रह जाओगी केवल और केवल
एक शर्मनाक विषय,
एक नीरस चर्चा,
जिसे समाज स्त्री कहता है
सुनो दो चोटी वाली लड़की
तुम्हें बनना है बछेंद्री पाल
और नाप लेना है माउंट एवरेस्ट
गाड़ देना है झंडा अपने वजूद का
और अपने नाम का परचम लहराना है
विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर पर .......
तुम्हे मैरीकॉम भी बनना है दो चोटी वाली लड़की
कि तुम जड़ सको जोरदार घूँसा
हर उस मनहूस चेहरे पर
जिसकी भंगिमाएँ बदलती हों
तुम्हारे शरीर की बदलती ज्यामिति पर ......
दो चोटी वाली लड़की, बन सकती हो तुम मैरी अंडरसन
जो करे इजाद एक ऐसा विंडशील्ड वाइपर
जिसे लोग करे इस्तेमाल
अपने दिमाग पर पड़े धुल को धोने के लिए
और फिर एक हो जाए उनका रवैया लड़का और लड़की के लिए .....
बन सकती हो तुम ग्रेस हूपर दो चोटी वाली लड़की
और लिख सकती है कोबोल जैसी कोई नयी भाषा
जिसे पढ़ें उभय लिंग के प्राणी बिना भेदभाव के
और डिस्प्ले लिखकर कहे "हेल्लो वर्ल्ड "
बड़े ही जिंदादिली और बेबाकी के साथ .......
जो ऐसा कुछ नहीं बन पायी दो चोटी वाली लड़की
तो कर लेना अनुसरण अपने पिता का...खेतों... खलिहानों तक
लगा लेना झूला आम के किसी पेड़ पर और बौरा जाना
जैसे बौराती है अमिया की डाली फागुन में
खूब गाना कजरी सखियों के संग मिलकर
ऐसे में कहीं जो कोई धर दे तुम्हारी जुबां पर हाथ
मंथर होने लगे तुम्हारी आवाज़
उठा लेना हाथ में हंसुआ
और काट देना गन्दी फसल को..... जड़ से....
फिर खोल लेना अपनी चोटियाँ मुक्तिबोध में
बना लेना गजरा खेत के मेड़ पर उग आये वनफूलों से
खोंस लेना बालों में आत्मविश्वास के साथ
चल पड़ना हवा के बहाव की दिशा में
कि तुम हो प्रकृति
तुम्हे रहना है हरा भरा...हर हाल में |
बताओ न, दो चोटी वाली लड़की,
तुम्हें क्या बनना है ?


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
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एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
बस सोती रही देर तक
घण्टों नहाया झरने में
धूप में सुखाये बाल
और गाती रही पुरे दिन कोई पुराना गीत

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
बिंदी को कहा "ना"
कहा चूड़ियों से "आज नहीं"
काजल से बोली "फिर कभी"
और लगा लिया तन पर आराम का लेप
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
न तोड़े फूल बगीचे से
न किया कोई पूजा पाठ
न पढ़ा कोई श्लोक ही
और सुनती रही मन का प्रलाप तन्मयता से
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
तवे को दिखाया पीठ
खूब चिढ़ाया कड़ाही को
फेर लिया मुँह चाकू से
और मिलाकर घी खाया गीला भात
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
न साफ़ की रसोई
न साफ़ किया घर
नहीं माँजा पड़ा हुआ जूठा बर्तन
और अंजुरी में भरकर पिया पानी
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
रहने दिया जूतों को बिन पॉलिश के
झाड़न को दूर से घूरा
झाड़ू को भी अनदेखा कर दिया
और हटाती रही धूल सुन्दर स्मृतियों से
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
न ही उठाया खिड़की से पर्दा
न ही घूमने गयी कहीं बाहर
न मुलाक़ात की किसी से
और बस करती रही बात अपने आप से
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
जो उसे करना था रखने को खुश औरों को
कि उसे नहीं था मन कुछ भी करने का
जीना था उसे भी एक दिन बेतरतीबी से
और मिटाना था ऊब अभिनय करते रहने का
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
दरअसल वह गयी थी जान
कि नहीं था अधिक ज़रूरी
कुछ भी जिंदगी में
जिंदगी से अधिक
एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
बस मनाया ज़श्न
अपने जिंदा होने का


बिन पता के लिफ़ाफ़े में
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काश तुम सहेज पाते मेरे प्रेम को
मोती की तरह वक़्त के सीपी में
जो हो गया है लुप्त धीरे-धीरे
मैमथ की ही तरह धरती से

मैं अक्सर अपने सपनों में
बुनती हूँ एक मफ़लर काले रंग का
जिसे चाहती हूँ लपेटना तुम्हारे गले में
मेरी बाँहों के हार सा
पर जब मैं देखती हूँ खुद को आईने में
तो देखती हूँ केवल एक ठूँठ
जिस पर करती हैं आरोहण
तुम्हारी यादें वनलता की मानिंद
चला देती हूँ रवीन्द्र संगीत उस कमरे में
दिन के भोजन के ठीक बाद
जहाँ अब रहते हो तुम बड़े सुकून से अकेले
क्यूँकि मेरे एकांत में बहुत सक्रिय होते हो तुम
झाँकती हैं एक जोड़ी आँखें आजकल
उस बिना साँकल वाली खिड़की से
जहाँ लगाना था नीले रंग का पर्दा
ओढ़ बैठी हूँ मैं दर्द की नीली चादर
भेजती हूँ खत कुछ दिनों से बिन पता के लिफ़ाफ़े में
जबकि तुम्हारे ठिकाने का सन्देश दे ही जाती है हवा
कि नहीं मयस्सर मुझको तुम्हें परेशाँ देखना
और मेरा कद मुझे पशीमान होने की इज़ाज़त नहीं देता

 
बेटियाँ
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हो जाती हैं विदा बेटियाँ मायके से
लेकर संदूक में यादों का जखीरा
जैसे करता है विदा पहाड़ नदी को
और लाती है नदी अपने साथ खनिज

बनाती जैसे डेल्टा नदी समुद्र में मिलने के पूर्व
अनेक शाखाओं में कर स्वयं को ही विभाजित
बाँट लेती हैं बेटियाँ खुद को दो अलग घरों में
कि ऐसा करना ही होता है उनका तयशुदा धर्म
जहाँ खो देती है नदी अपना मीठा स्वाद
विशाल समंदर के खारे फेनिल जल में
लपेटना होता है अक्सर जुबान पर शहद
नमकीन पसंद करनेवाली इन बेटियों को
सुनो नदियाँ, तुम नर्मदा सी बन जाओ
कि नहीं बाँटना पड़े खुद को बनाने को डेल्टा
बेटियाँ तुम कहना सीख लो
कि तुम्हे नमकीन है पसंद !!!


बीता हुआ वक़्त
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क्या बाँधा किसी ने उस इकलौते कुत्ते को
मरुथल में काटा जिसने ऊँट पर बैठे इंसान को
और जिंदगी की अदालत में मुजरिम बना वक़्त
क्या वक्त इतना था बुरा कि मिले उसे सजा उम्रकैद की
और दर्ज होकर रह जाए उसका बुरा होना इतिहास में
फिर मान ले मानदण्ड लोग अपने बचाव की खातिर उसे
क्या ज़िक्र हुआ किसी किताब में उन करोड़ों लोगों का
जो चढ़े ऊँटों पर एक नहीं, कई बार
और जिन पर नहीं किया हमला किसी कुत्ते ने
काश हम सीख पाते कि हादसों से इतर हैं घटती
सुंदर घटनाएं भी जीवन में
कि बीता हुआ वक़्त गुज़र नहीं पाता
ठहर जाता है हमारी स्मृतियों में



1 comment:

  1. 'कवि अब कविता नहीं लिखता/लिखता है प्रेम' ।
    कवयित्री की इन पंक्तियों से आरंभ हुई यात्रा अंतिम कविता तक पहुँच कर एक लंबा सफर तय करती हुई एक सुखद अहसास कराती है।एक स्त्री के अंदर दबे हुए तमाम सवाल कविता के माध्यम से हमें झकझोरती है एवं तमाम प्रश्न उठाती हैं।क्या कहूँ अभी तक उन कविताओं की खुमारी दिमाग पर छाई हुई है।स्त्री मन की संवेदनाओं को वें जितनी खूबसुरती से बयां कर रहीं हैं वह लाजवाब है। उन्हें मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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