Saturday 31 October 2015

आख़िर मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों की ज़िद से लौटे अशोक वाजपेयी

दुनिया भर में प्रतिरोध लेखक और कलाकार का सब से बड़ा हथियार है । इस लिए भी कि लेखक और कलाकार हिंसक नहीं होता । होना भी नहीं चाहिए । लेकिन अगर आप मुंबई का टिकट ले कर दिल्ली की गाड़ी में बैठ जाने की नादानी भरी ज़िद पर उतर आएं और कहने लगें , मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! तो क्या लेखक , क्या कलाकार , क्या देश और क्या समाज किसी भी का भी भला नहीं होने वाला । वह भी तब जब आप बड़े लेखक हों , चिंतक हों , प्रशासनिक सेवा का अनुभव भी आप के पास हो तब भी आप ऐसी बचकानी नौटंकी पर आमादा हो जाएं कि भाई टिकट तो हमारे पास मुंबई का है पर यह ट्रेन हमें दिल्ली क्यों ले आई है ? फिर आप दिल्ली और रेल पर लानत-मलामत करते फिरें ।

अशोक वाजपेयी
बीते दिनों अशोक वाजपेयी एंड कंपनी ने यही किया है साहित्य अकादमी पुरस्कारों की वापसी की नौटंकी कर के । विरोध उन्हें करना था नरेंद्र मोदी और उन की सरकार का , वह विरोध करने लगे साहित्य अकादमी का । वह चलती का नाम गाड़ी फ़िल्म में मज़रूह सुलतानपुरी का लिखा सचिन देव वर्मन की धुन में सजा किशोर कुमार का  गाया हुआ गाना है ना , जाना था जापान , पहंच गए चीन , समझ गए ना ! तो यही हुआ ।  पर कहते हैं कि देर आयद , दुरुस्त आयद। अशोक वाजपेयी इतना भटक-भटका कर मूल मुद्दे पर पहुंच गए हैं । कम से कम कल एक नवंबर को कांसटीट्यूशन क्लब  दिल्ली के मावलंकर हाल में उन की ओर से आयोजित कार्यक्रम के बाबत तैयार कार्ड से यही लगता है । इस में साहित्य अकादमी शब्द का ज़िक्र तक नहीं है । यह प्रतिरोध हर किसी का अधिकार है । इस में किसी को कोई ऐतराज होना भी नहीं चाहिए । अशोक वाजपेयी अगर पहले ही चित्त निर्भय के इस अभियान में इसी तरह खड़े हुए होते और सनसनी के तौर पर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की नौटंकी के फेर में न पड़े होते तो शायद उन की इस मुहिम को लोग गंभीरता से लिए होते । और वह चीन नहीं ,  जापान ही पहुंचे होते , जो उन का गंतव्य था । लेकिन साहित्य अकादमी को बीच में ला कर वह भारी फजीहत में फंस गए। क्यों कि साहित्य अकादमी सरकार नहीं चलाती ।  न नरेंद्र मोदी को डिक्टेट करती है , न नरेंद्र मोदी से डिक्टेट होती है ।

क्या है कि पहले के समय में जब दो राजा आपस में लड़ते थे तो जब कोई एक राजा हारने लगता था , तब सामने एक गाय खड़ी कर देता था । प्रतिद्वंद्वी राजा फिर उस राजा पर हमला रोक देता था । गाय की सुरक्षा के मद्दे नज़र ताकि कहीं गाय की हत्या न हो जाए और पाप लग जाए । नतीजतन अगला राजा संभावित हार से अपनी जान ले कर बच निकलता था । अशोक वाजपेयी भी जब चुनाव में लेखकों के लाख हस्ताक्षर और अभियान के बावजूद नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनने से नहीं रोक पाए तो उन्हों ने इसी गाय रणनीति पर अमल करते हुए साहित्य अकादमी को गाय बना कर खड़ा कर दिया । वह यह नहीं समझ पाए कि लेखकीय चोंगे में राजनीतिक लड़ाई वह हार चुके हैं । साहित्य अकादमी की सनसनी काम नहीं आने वाली । लड़ाई लड़ने का बड़ा औजार है कलम , आंदोलन और विभिन्न मोर्चों पर प्रतिरोध की दस्तक । साहित्य कभी अपनी लड़ाई नहीं हारता । लेकिन साहित्य अपनी रचना धर्मिता से समाज रचता है , समाज को जागरूक करता है , राजनीतिक रूप से भी सजग करना साहित्य की ज़िम्मेदारी है । पर युधिष्ठिर की तरह जुआ खेल कर नहीं , गलत पासा फ़ेंक कर नहीं । अश्वत्थामा मरो , नरो वा कुंजरो कह कर नहीं । 

माफ़ कीजिए अशोक वाजपेयी आप ने यही किया । युधिष्ठिर बन गए । द्रौपदी को दांव पर लगाने और जुए में हारने के बाद अश्वत्थामा मरो , नरो वा कुंजरो भी कर गए । इस सब के लिए आप को साहित्य अकादमी ही मिली थी ?


विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से एक विश्व कविता समारोह का प्रतिशोध लेने के लिए आप ने एक राजनीतिक लड़ाई को साहित्य अकादमी की तरफ मोड़ दिया । और चारो खाना चित्त हो गए । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को आप क्या समझते थे कि वह लौकी , कद्दू की सब्जी हैं और आप उन्हें इस आसानी से काट खाएंगे ? आप क्या समझते हैं गोटियां खेलना , मोहरे फिट करना ही सब कुछ होता है ? विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गांधीवादी व्यक्ति हैं , साधारण व्यक्ति हैं । साधारण व्यक्ति के पास , गांधीवादी व्यक्ति के पास आत्मिक शक्ति बहुत होती है । जो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी में है । अपनी इसी शक्ति के दम पर वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं । अभी तक इस के पहले साहित्य अकादमी के इतिहास में कोई दूसरा हिंदी लेखक साहित्य अकादमी का उपाध्यक्ष या अध्यक्ष निर्वाचित नहीं हो सका था । हजारी प्रसाद द्विवेदी , अज्ञेय , विद्यानिवास मिश्र , नामवर सिंह और आप जैसे अन्य लेखक भी यह चुनाव लड़ते और हारते रहे हैं । क्यों कि अन्य भारतीय भाषाओं में हिंदी का विरोध बहुत रहा है । और इस पद के लिए किसी व्यक्ति को सभी भारतीय भाषाओं के लेखक मिल कर चुनते हैं । विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने दम पर पहले उपाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हो कर भारतीय भाषाओं में इस हिंदी विरोध को दरकिनार किया है । लेकिन एक अदना आदमी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को इस पद पर निर्वाचित होते देखना दिल्ली के तमाम मठाधीशों को नागवार गुज़रा है । आप जैसे साहित्यिक राजनीतिबाज़ को भी ।  कि गोरखपुर जैसे छोटे शहर का यह आदमी कैसे इस पद पर बैठ गया ? यह बात हिंदी जगत ही नहीं समूचा भारतीय साहित्य जगत जानता है । लेकिन साहित्य हो , राजनीति हो व्यक्तिगत प्रतिशोध की भी एक सीमा होती है । वह आप ने पार कर ली और अंजाम सामने है । आप की लड़ाई कुंद पड़ गई। आप की इस कुत्सित मुहिम से समाज में लेखकों का सम्मान गिरा है , इस का अभी आप को अंदाज़ा नहीं है । आने वाले दिन अभी आप को जब और मुंह चिढ़ायेंगे तब आप को पता चलेगा । अभी इस धूल को समय की दीवार पर बैठ जाने दीजिए ।

दिल्ली के मालवलंकर हाल में आयोजित कार्यक्रम के बाबत कार्ड
युवा पत्रकार आशीष कुमार अंशु की एक सूचना के मुताबिक़ साहित्य अकादेमी पुुरस्कार अब तक एक हजार एक सौ दस लोगों को दिया गया है। जिसमें 536 लोग जीवित हैं। इनमें 26 साहित्यकारों ने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाया है। बाल साहित्य की श्रेणी में 144 लेखकों को पुरस्कृत किया गया। जिनमें 128 लेखक जीवित हैं। इसमें सिर्फ एक लेखक ने अपना पुरस्कार लौटाया है। अनुवाद में 500 लेखकों को सम्मानित किया गया है। सभी अनुवादक जीवित हैं। तीन लेखकों ने पुरस्कार लौटाया है। युवा पुरस्कार 111 लेखकों दिया गया है। उनमें सिर्फ एक लेखक ने पुरस्कार लौटाने की सूचना ई मेल के माध्यम से आकदेमी को दी है। पुरस्कार लौटाया नहीं है। वैसे अकादेमी ने सम्मान लौटाने वाले लेखकों को एक पत्र लिखा है जिसमें उनसे यह आग्रह किया गया है कि वे अपने सम्मान वापसी पर पुनर्विचार करें।

ज़िक्र यह भी जरूरी है कि यह सारी वापसी भी मौखिक ही है। अखबारी बयान के ऐलान पर । धनराशि का ड्राफ्ट तो किसी ने भेजा ही नहीं । ज़्यादातर ने चिट्ठी भी नहीं भेजी । बतर्ज़ नामवर सिंह , मौखिक ही मौलिक है सभी पर तारी है । दिलचस्प यह भी है कि यह सारे लेखक इस तथ्य से भली भांति परिचित हैं कि साहित्य अकादमी के बाईलाज में सम्मान वापस करने का कोई  प्रावधान नहीं है । तो  भी जैसे शादी-व्याह में परिजन मारे ख़ुशी के पैसे लुटाते हैं , ठीक वैसे ही यह कुछ मुट्ठी भर लेखक अपना सम्मान , अगर वह है तो मारे गुस्से में लौटाते जा रहे हैं । यह भूल-भाल कर कि साहित्य अकादमी उन की अपनी संस्था है , सरकारी संस्था नहीं । 

बहरहाल अशोक वाजपेयी और ओम थानवी अब जहां चित्त हो निर्भय के बहाने प्रतिरोध खातिर एक मंच पर हैं । हालां कि जनसत्ता और रज़ा फाउंडेशन के बीच आपसी ज़रूरतों ने उन्हें पहले से नज़दीक किया हुआ है । पर यह तथ्य भी हम सब के सामने है ही कि ओम थानवी अज्ञेय के परम भक्त हैं और अशोक वाजपेयी एक समय अज्ञेय के धुर विरोधी रहे हैं । इतना कि अज्ञेय का नाम लेने से भी कतराते रहे, अज्ञेय को कंडम करते रहे हैं । ख़ैर , ओम थानवी ही क्यों तमाम वामपंथी लेखक भी जो अशोक वाजपेयी से बुरी तरह चिढ़ते रहे हैं , खार खाते रहे हैं और कि अशोक वाजपेयी इन वामपंथी लेखकों से । बिलकुल भारत पाकिस्तान की तरह आपस में लड़ते रहे हैं , वह भी इस मुहिम में गलबहियां डाले दिखे हैं। यह अच्छी बात है। लेखक समाज को छुआछूत से बचना चाहिए और किसी भी जन प्रतिरोध में लेखकों को आपस में कंधे से कंधा मिला कर एकजुट रहना चाहिए । लेकिन अभी यह एक सपना है , एक उम्मीद है जो बहुत क्षीण है । अशोक वाजपेयी जैसे लोगों का स्वार्थ और राजनीति कभी इस मकसद को पूरा होने देगा , मुमकिन नहीं लगता । फिर भी अशोक वाजपेयी के एक कविता संग्रह को ही याद करूं और कहूं कि शहर अब भी एक संभावना है । संभावना है कि मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! की जिद से वह फुर्सत लेंगे । एक तरह से अभी ले भी चुके हैं । तो इस बिना पर जापान जाना है तो जापान ही जाएंगे , चीन नहीं ।

क्यों कि समां तो रंगीन ही रहेगा , आप चाहे जापान जाईए चाहे चीन ! इस लिए भी कि साहित्य अब समाज का न तो दर्पण रह गया है ,न ही समाज के या राजनीति के आगे-आगे  चलने वाली मशाल ! जैसे अशोक वाजपेयी आप कांग्रेस के पीछे चल रहे हैं ,वैसे ही कोई भाजपा के पीछे चल रहा है तो कोई वामदल के पीछे । कोई सपा के पीछे , कोई बसपा , कोई जयललिता , कोई नीतीश , कोई लालू आदि के पीछे । कोई किसी के पीछे ,कोई किसी के पीछे । एक बड़ा सच यह भी है कि पुरस्कारों ,यात्राओं , फेलोशिप और पदों आदि के पीछे भागने वाले लेखकों की संख्या इन सब से भी ज़्यादा है ।और आप यही पुरस्कार लौटाने वालों का नेतृत्व कर रहे हैं । ऐसे में आप की इस मुहिम की हवा तो वैसे ही निकली हुई है । ऐसे नाज़ुक दौर में आपने अपना पाठ देर से ही सही दुरुस्त कर लिया है । अच्छी बात है । पर प्रेम  धवन के लिखे और रवि के संगीत में तलत महमूद के गाए उस गाने का भी क्या करें ,सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया ! इस लिए भी कि सम्मान पाने की चीज़ है ,लौटाने की नहीं । वक्त की तरह लौटता नहीं है सम्मान भी ।

यह लिंक भी पढ़ें :

1. साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का तमाशा 

 

2. आंधी फिल्म सिनेमा घरों से उतार उस के प्रिंट जलवा दिए संजय गांधी ने तब क्या किया था गुलज़ार साहब !

 

3. अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर के सिर्फ़ और सिर्फ़ नौटंकी की है

 

6 comments:

  1. its a virtual analytical blog. Ashok B..& co. by now must have,on Sunday at 2.00 am onward, recollected their folly with family members comments of curmudgeon.Any way these guys have proved themselves unworthy of indian culture

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-11-2015) को "अब भगवान भी दौरे पर" (चर्चा अंक 2152) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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