Friday 11 December 2015

अगर निरुपमा पांडेय की चले तो वह मुझे लेखक नहीं , लेखक का कारखाना बना दें


निरुपमा पांडेय

यह निरुपमा पांडेय हैं । मेरी रचनाओं की अनुपम पाठक । ख़ास कर मेरी कविताओं की अनन्य पाठक । कह सकता हूं अधीर पाठक । खोज-खोज कर मेरी रचनाएं पढ़ती हैं । मेरे ब्लाग सरोकारनामा पर उपस्थित एक-एक लाईन पढ़ चुकी हैं । निरुपमा पांडेय अब गृहिणी हैं । कभी कामकाजी भी थीं । भरा-पुरा परिवार है । प्यारे-प्यारे दो बच्चों की मां हैं । अपनी रिश्ते की एक जेठानी अनीता उपाध्याय को भी मेरी रचनाओं से जोड़ दिया है। देवरानी -जेठानी दोनों पढ़ती रहती हैं । निरुपमा पांडेय कई बार मेरे पात्रों से इस कदर जुड़ जाती हैं कि मत पूछिए । और तो और उन पात्रों में मेरी परछाईं भी खोजने लगती हैं । और उन पात्रों से सहानुभूति दिखाने लगती हैं । जैसे कि जब उन्हों ने वे जो हारे हुए पढ़ा तो दुःख में डूब गईं। आनंद की यातना में डूब गईं । उन को यह भी लगने लगा कि आनंद कोई और नहीं मैं ही हूं। अकसर वह पात्रों के बारे में तर्क-वितर्क करने लगती हैं । बहुत बार वह मेरी बात से असहमत भी होती रहती हैं । साफ लिख देती हैं कि मैं आप की इस बात से सहमत नहीं हूं। तो मैं कभी उन्हें सहमत करने की कोशिश भी नहीं करता । हर पाठक की अपनी राय होती है । अपनी सहमति-असहमति होती है । यह उस का अपना अधिकार है । उसे रहने देना चाहिए । 


अपने पति गिरिजेश पांडेय के साथ निरुपमा
बांसगांव की मुनमुन पढ़ कर देवरानी जेठानी दोनों ही गदगद थीं । लेकिन अनीता जी सवाल-जवाब नहीं करतीं । जैसे गूंगे का गुड़ हो , उसी तरह चुप-चुप , मुसकुरा-मुसकुरा कर ही प्रतिक्रिया देती हैं । यह सूचना देती हुई कि मैं ने आप की सारी रचनाएं पढ़ी हैं । लेकिन निरुपमा जी के साथ ऐसा नहीं है । वह पढ़ती हैं और अपने तर्क-वितर्क के साथ , तमाम खट्टे-मीठे प्रश्नों के साथ उपस्थित मिलती हैं । कई बार तो ऐसे पेश आती हैं गोया वह कोई अध्यापिका हों और मैं उन का विद्यार्थी । बस जाने क्यों मेरी कविताओं से उन को कोई शिकायत अभी तक नहीं हुई है । हां एक मुश्किल बात यह है कि अगर निरुपमा पांडेय की चले तो वह मुझे लेखक नहीं , लेखक का कारखाना बना दें । उन की जैसे ज़िद हो जाती है कि मुझे रोज लिखना चाहिए और ख़ूब सारा लिखना चाहिए ।  ताकि वह पढ़ती रहें । मैं उन से विनय पूर्वक कहता रहता हूं कि ऐसा मुमकिन नहीं है । लिखना इतना आसान नहीं होता । रोज-रोज तो हरगिज नहीं । मज़दूरी या क्लर्की नहीं है । नौकरी नहीं है यह रोज-रोज की । तो वह बच्चों की तरह मान भी जाती हैं । लेकिन बहुत जल्दी ही फिर इस ख़ूब सारा लिखने की धुन पर उतर आती हैं । इन दिनों उन की यह नाराजगी उफान पर है । किसी पाठक की तरह नहीं । किसी अध्यापक की तरह । किसी गार्जियन की तरह । क्यों कि मैं इन दिनों कुछ ख़ास लिख नहीं रहा हूं। मैं मानता हूं कि पाठक भी गार्जियन और अध्यापक ही होते हैं । 

लेकिन क्या ऐसे भी पाठक होते हैं कहीं ? फ़िलहाल तो हैं । यह निरुपमा पाठक हैं । वैसे तो अनगिन पाठक हैं मेरे । पर कुछ अनूठे पाठक होते हैं हर लेखक के जीवन में । मेरे भी जीवन में हैं । कुछ और पाठकों से जल्दी ही मिलाऊंगा ।

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