Sunday 27 March 2016

एक सूक्ति , क़िस्सा , लतीफ़ा उर्फ़ कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाले पानी में आग लगाने वाले आचार्य !

फ़ोटो : सुंदर अय्यर

मेरी अनुपस्थिति के समय में फ़ेसबुक मेरे लिए कुछ ज़्यादा ही बेक़रार था 

मैं अपने शहर गोरखपुर गया हुआ था। ट्रेन लेट थी तो स्टेशन के एक बुक स्टाल पर किताबें पत्रिकाएं पलटने लगा । सूक्तियों की एक किताब भी पलटी । मार्क ट्वेन की एक सूक्ति पर नज़र गई । आप भी गौर कीजिए :

मूर्खों से कभी बहस नहीं करनी चाहिए, मूर्ख पहले आप को 
अपने स्तर पर लेकर आएगा फिर अपने अनुभव से आप को पराजित कर देगा।

 - मार्क ट्वेन

चूंकि लखनऊ से बाहर था सो फ़ेसबुक से भी दूर था । लौटा तो अभी फ़ेसबुक पर आया और पाया कि मेरी अनुपस्थिति के समय में फ़ेसबुक मेरे लिए कुछ ज़्यादा ही बेक़रार था । यह मंज़र देख कर एक फ़िल्मी गाना याद आ गया । एक दूसरे के लिए बेक़रार हम । और मार्क ट्वेन की वह सूक्ति भी गुदगुदाने लगी । रेडियो पर गाना भी क्या ख़ूब बज रहा है , कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना ! कैसे-कैसे तो पानी में आग लगाने वाले आचार्य हैं अपने लखनऊ शहर में । कंधा किसी का , बंदूक किसी की , ट्रिगर भी कोई और दबाता है , लेकिन निशाना इन का ।  सीधे-सीधे कुछ नहीं है । कि ऐसे गानों की तासीर भी अभी बचाए हुए हैं । हालां कि निशाना चूक गया है , अकारथ हो गया है , नंगे हो गए हैं आचार्य प्रवर । यह उन की बदनसीबी । जय हो !

प्रसंगवश एक क़िस्सा याद आ गया है । सुनिए ।

एक गांव में एक ख़ूब काला व्यक्ति था। उस का विवाह एक ख़ूब गोरी स्त्री से हो गया । वह अपनी पत्नी के प्रति सदैव सशंकित रहता था। बेबात उस की पिटाई करता रहता था । कोई न कोई बहाना खोजता रहता था । एक दिन उस ने जब अपनी पत्नी की पिटाई में ज़्यादा अति कर दी तो गांव के लोग इकट्ठा हुए और उस से जवाब तलब किया कि यह क्या है कि तुम रोज बिना किसी कारण अपनी पत्नी की पिटाई करते रहते हो । वह व्यक्ति बोला , आप लोग बीच में मत पड़िए । यह हमारा पारिवारिक मामला है । लोग चुप हो गए । पर दूसरे दिन वह व्यक्ति अपनी पत्नी की जान पर उतारु हो गया । गांव के लोग फिर इकट्ठे हुए । पंचायत बैठी । पूछा गया कि आज भी क्यों पीटा ? वह काला व्यक्ति बोला , मेरी पत्नी को घर का कोई काम काज नहीं आता । बड़ी बेशऊर है । अब आज कहा कि खीर बनाओ तो बेअर्थ की खीर बना कर रख दी । इस लिए पीटा । अब उस स्त्री द्वारा बनाई गई खीर मंगवाई गई । लोगों ने चखी और कहा कि खीर तो अच्छी बनी है । दिक्कत क्या है ? वह काला व्यक्ति बोला , खीर में लेकिन हल्दी कहां है ? लोग चकित हुए और कहा कि खीर में हल्दी कहां पड़ती है ? वह काला व्यक्ति बेहूदगी से बोला , पर मुझे तो खीर में हल्दी अच्छी लगती है । 

अब एक लतीफ़ा भी सुन लीजिए । 

एक लड़का था। एक शाम स्कूल से लौटा तो अपनी मम्मी से पूछने लगा कि, 'मम्मी, मम्मी ! दूध का रंग काला होता है कि सफ़ेद?

' ऐसा क्यों पूछ रहे हो ?' मम्मी ने उत्सुकता वश पूछा।

' कुछ नहीं मम्मी, तुम बस मुझे बता दो !'

' लेकिन बात क्या है बेटा !'

'बात यह है मम्मी कि आज एक लड़के से स्कूल में शर्त लग गई है।' वह मम्मी से बोला कि,  'वह लड़का कह रहा था कि दूध सफ़ेद होता है और मैं ने कहा कि दूध काला होता है !' वह मारे खुशी के बोला, 'बस शर्त लग गई है !'

' तब तो बेटा, तुम शर्त हार गए हो !' मम्मी ने उदास होते हुए बेटे से कहा, ' क्यों कि दूध तो सफ़ेद ही होता है !'

यह सुन कर वह लड़का भी उदास हो गया। लेकिन थोड़ी देर बाद जब वह खेल कर लौटा तो बोला, ' मम्मी, मम्मी ! मैं शर्त फिर भी नहीं हारुंगा।'

' वो कैसे भला ?' मम्मी ने उत्सुकता वश बेटे से मार दुलार में पूछा।'

' वो ऐसे मम्मी कि जब मैं मानूंगा कि दूध सफ़ेद होता है, तब ना हारुंगा !' वह उछलते हुए बोला कि, ' मैं तो कहता ही रहूंगा कि दूध काला ही होता है और लगातार कहता रहूंगा कि दूध काला होता है। मानूंगा ही नहीं कि दूध सफ़ेद होता है। सो मम्मी मैं शर्त नहीं हारुंगा !'

' क्या बात है बेटा ! मान गई तुम को !' मम्मी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा, 'फिर तो तुम सचमुच शर्त नहीं हारोगे।'

यह तो खैर लतीफ़ा है। वह क़िस्सा था । और वह सूक्ति । 

लेकिन हमारे जीवन में भी , हमारे आस-पास भी काले दूध और खीर में हल्दी के तलबगार कुछ लोग उपस्थित हो गए हैं। बिन मांगे मेरी एक सलाह है कि आप ऐसे तलबगार लोगों को आंख , कान मूंद कर आगे-पीछे , दाएं-बाएं या जिधर से भी निकलें निकल जाने दें । और जो ग़लती से आंख , कान खुल जाएं तो मार्क ट्वेन की उपरोक्त सूक्ति को याद कर लें । खीर में हल्दी और काले दूध के तलबगारों से भूल कर भी न उलझें । समय के साथ शायद उन की इस तलब में तब्दीली आ जाए और पानी में आग लगाने वाले आचार्यों की संगत से वह उबर भी जाएं । समझ बदल जाए । समझ आ जाए शब्द की सत्ता , उस के अर्थ , निहितार्थ , भाव भंगिमा और उस की लक्षणा-व्यंजना भी। अपने पूरे तद्भव और तत्सम के साथ। सकारात्मक हो कर अपनी रचनात्मकता को ओढ़ें और बिछाएं। विध्वंसकारियों का ध्वंस करें । या उन के हाल पर छोड़ दें । वह स्वत: समाप्त हो जाएंगे। इस लिए उन की बिछाई बिसात पर न खेलें । न निरर्थक विमर्श में उलझें । क्यों कि इन आचार्यों की थाती बस यही और यही मात्र है । अलोक धन्वा की गोली दागो पोस्टर याद करें । और यहां यह कविता पढ़ें और इस का मर्म बूझें :


गोली दागो पोस्टर / आलोक धन्वा

यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !

जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-

एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक

यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है

क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?

वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ !

सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?

जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं

यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।

आमीन !

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-03-2016) को "सूरज तो सबकी छत पर है" (चर्चा अंक - 2296) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete