Saturday 23 April 2016

यह दल्ले पत्रकार किस मुंह से प्रेस क्लबों में समारोहपूर्वक मज़दूर दिवस की हुंकार भरते हैं

फ़ोटो : रघु राय

कारपोरेट कल्चर के आकाश में मज़दूर ही आज की तारीख में सब से ज़्यादा असुरक्षित है, सब से ज़्यादा असंगठित है । और यह सारी सरकारें, यह सारे मज़दूर संगठन उस के सब से बड़े दुश्मन ! एक गरीब किसान के पास तो मुआवजा पाने को, ठसक दिखाने को , अन्नदाता कहलाने को थोड़ी-बहुत ज़मीन भी है पर इस निरे मज़दूर के पास क्या है ? कारपोरेट ने उस की धरती , उस की मेहनत और उस का आकाश छीन लिया है । कारपोरेट के कालीन तले मज़दूर अब सिसकी भी नहीं ले सकता ।

क्या कहा श्रम क़ानून ?

सारे श्रम कानून श्रम विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को रिश्वत बटोरने के लिए बने हैं , नियोक्ताओं के मनमानेपन के लिए बने हैं । मज़दूरों के पास तो अब अपने नारे भी नहीं हैं , अपनी लड़ाई भी नहीं है । इन के पास न आधार कार्ड है न राशन कार्ड ! रोटी दाल की लड़ाई लड़ने वाले यह बेघर लोग,  निहत्थे और कायर होते हैं , अस्मिता विहीन ! आप इतना भी नहीं जानते ? यह स्कूल , यह अस्पताल , यह ये और वह वो कुछ भी इन के लिए नहीं है । यह रेल के डब्बे, यह बसें कुछ भी नहीं । यह नौटंकीबाज़ और खोखलेपन से भरा आदमी राहुल गांधी रेल के जिस जनरल डब्बे में फोटो खिंचवाने जाता है यह रेल डब्बा भी एक धोखा है ।  मज़दूर जिस रेल के जनरल डब्बे में सफर करता है , कितना अपमानित हो कर करता है , यह आप नहीं जानते ? घुसना भी कितना कठिन होता है , इस डब्बे में घुसने के लिए भी कितनी लंबी -लंबी लाइन लगती है , घुसने के बाद भी सांस लेना मुश्किल हो जाता है , बाथरूम भी जाने के लिए आदमी सोच नहीं पाता और बाथरूम भी कितना गंदा होता है आप जानते हैं ? और इस बाथरूम में भी दस पांच लोग बैठे ही मिलते हैं । रेल के टीटियों और पुलिस की उगाही अलग किस्सा है । 

ठेकेदारी के युग में , इस बेशर्म आऊटसोर्सिंग और विज्ञापनी दौर में आप मज़दूर दिवस की बात करते हैं ? आप को तनिक भी शर्म नहीं आती ? आप को मालूम भी है कि किसी माल में खड़ा एक मामूली सेक्यूरटी गार्ड बारह से अठारह घंटे की ड्यूटी बजा कर भी , बिना किसी छुट्टी के छ हज़ार,  सात हज़ार रुपए महीने ही कमा पाता है । इन की या उन की नौकरियां जब दिहाड़ी में तब्दील हो गई हों , मज़दूर मज़दूरी के साथ ही खून बेचने के काम में लग गया हो , किडनी रैकेटियरों के चंगुल में फंस गया हो , ऐसे में भी आप मज़दूर दिवस के समारोह कैसे आयोजित कर लेते हैं ? नेताओं और अधिकारियों के तलवे चाटने के लिए ? राजनीतिक रैलियों में बंधुआ बन कर जाने वाले मज़दूर जिस देश में करोड़ों की संख्या में बसते हों , उस देश में यह मज़दूर दिवस , यह लाल सलाम-वलाम सिर्फ़ और सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी की बातें हैं , वाहियात बातें हैं , भरमाने की बातें हैं, अपनी-अपनी दुकान चलाने की बातें हैं । 

और यह दल्ले पत्रकार  किस मुंह से प्रेस क्लबों में समारोहपूर्वक मज़दूर दिवस की हुंकार भरते हैं , मुख्यमंत्री या किसी मंत्री की कोर्निश बजा कर ? जिन अख़बारों या चैनलों में मनरेगा से भी कम मज़दूरी मिलती हो , मणिसाना , मजीठिया या किसी भी वेतन सिफारिश की धज्जियां उड़ती हों , वह लोग किस मुंह से मज़दूर दिवस की बात करते हैं ? यह मज़दूर दिवस जब रहा होगा , तब रहा होगा , मज़दूरों की अस्मिता ! आज तो यह सरासर धोखा है मज़दूरों के साथ ।  तो जाइए , चले जाइए , मैं नहीं देता इस धोखे में सने मज़दूर दिवस की बधाई।  आप बुरा मानते हैं तो मान जाइए , अपनी बला से !
जाने किस घड़ी में फैज़ ने लिखा था :

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.

यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे.

वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड़ 
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे.

जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे.

जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जायेंगे,
हम मेहनत से उपजायेंगे, बस बांट बराबर खायेंगे.

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.



यह दिन, यह सपना , फ़ैज़ का यह गीत जब जोश भरता था , तब भरता था , अब तो यह गीत भी इन हालातों में मुंह चिढ़ाता है ।  क्यों कि ज़माना बीत गया यह गीत गाते हुए , कोई सच , कोई सपना अब तक ज़मीन पर नहीं दिखा । अब यह मज़दूर विरोधी समय इस सपने को देखने , इस गीत को गाने की इज़ाज़त नहीं देता । कारपोरेट कल्चर के इस कुटिल युग में तो कतई नहीं ।
  
आज की तारीख़ में लगभग सभी मीडिया संस्थानों में ज़्यादातर पत्रकार या तो अनुबंध पर हैं या बाऊचर पेमेंट पर। कोई दस लाख , बीस लाख महीना पा रहा है तो कोई तीन हज़ार , पांच हज़ार , बीस हज़ार , पचास हज़ार भी । जैसा जो बार्गेन कर ले । बिना किसी पारिश्रमिक के भी काम करने वालों की लंबी कतार है । लेकिन बाकायदा नियुक्ति पत्र अब लगभग नदारद है । जिस पर मजीठिया सिफ़ारिश की वैधानिक दावेदारी बने । तो भी कुछ भाई लोग सोशल साईट से लगायत सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे हैं। जाने किस के लिए । देश में श्रम क़ानून का कहीं अता पता नहीं है। मीडिया हाऊसों में भी नहीं । वैसे भी श्रम विभाग अब नियोक्ताओं के पेरोल पर होते हैं। ट्रेड युनियन पहले दलाल बनीं फिर समाप्त हो गईं । अब उन का कोई नामलेवा नहीं है । इकलाब , जिंदाबाद अब सपना है । मीडिया मालिकों ने मुख्य मंत्री से लगायत अदालत तक को ख़रीद रखा है। सुप्रीम कोर्ट तक इस से बरी नहीं है। मंहगे वकील और तारीख़ देने की नौटंकी अलग है। दुनिया भर को ज्ञान बांटने वाले पत्रकार ख़ुद को ज्ञान देना भूल गए हैं। सच देखना भूल गए हैं । वैसे भी अब तकरीबन नब्बे प्रतिशत पत्रकार दलाली में अभ्यस्त हैं । अजीठिया मजीठिया की उन को कोई परवाह नहीं। मजीठिया पर लड़ाई फिर भी जारी है । हंसी आती है यह लड़ाई देख कर और नीरज के दो शेर याद आते हैं ।

हम को उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है
जो भूखे नंगों को सेहत की दवा देता है 

चील कौवों की अदालत में है मुजरिम कोयल
देखिए वक्त भला क्या फ़ैसला देता है

No comments:

Post a Comment