Sunday 2 November 2014

इन कहानियों में निरीक्षण क्षमता तो है परंतु गहरे उतर कर पात्रों के अंतर्मन को खंगालने में चूक

प्रताप दीक्षित 


     साहित्य के केंद्र में मनुष्य होता है। परंतु अकेला मनुष्य नहीं परिवार, समूह और समाज के संदर्भ में। यह संबंध भी समय के साथ बदले हैं। ज़्यादा पुरानी बात नहीं , स्वतंत्रता प्राप्ति से आद्यतन भूमंडलीकारण के दौर में इन संबंधों में आमूल परिवर्तन आए हैं। संयुक्त परिवारों से ले कर एकल परिवार तक की यात्रा में निम्नमध्यम वर्गीय परिवार सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। विडंबना यह है कि संयुक्त परिवार टूटे भले ही हों लेकिन उन की अवधारणा इस वर्ग में बरकरार है। चाहते चाहते हुए भी इन की अनुपस्थिति भी हमें उसी प्रकार प्रभावित करती है जिस प्रकार इन के बीच में रहते हुए। वर्तमान समय में गांवों और शहरों के परिवारों में ज़्यादा अंतर नहीं रह गया है। प्रेमचंद के समय से आज के गांव बहुत बदल गए हैं।  आज हर की विकृतियां गांवों में प्रवेश कर चुकी हैं। वहां भी परिवारों में टूटन और विघटन है।

     बड़की दी का यक्ष प्रश्न मूलतः स्त्री की विडंबनाओं, सामाजिक रूढ़ियों और इस के पीछे मनुष्य ओर रिश्तों में आए स्वार्थ और अव्यक्त लालच की कहानी है। जीवन भर जिस स्त्री ने पूरे परिवार के लिए सर्वस्व समर्पित कर दिया उसके वृद्धावस्था में उस की मृत्यु का परोक्ष इंतज़ार उस की संपत्ति के लिए किया जाता है। परंतु कहानी में एक आश्वस्ति है कि अन्नू की बहू जैसे पात्र अभी मौजूद हैं।
 
     सुमि का स्पेस परिवर्तन के उस दौर की कहानी है जिस में लड़की अपने जीवन की सार्थकता केवल विवाह में नहीं देखती। उसे अपने कैरियर की चिंता है, महत्वाकांक्षाएं हैं। इस के पीछे लड़की  के अवचेतन में दहेज, बेमेल विवाह की आशंका, वर-पक्ष का अपने को श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध भी है। युवा लड़की के विवाह होने पर होने वाले तमाम अपवादों का वह सामना करती है।
 
     भारत में लड़की के लिए विवाह अनिश्चित भविष्य का द्वार है, जिस के दरवाज़े कब बंद हो जाएं कहा नहीं जा सकता। संगम के हर की लड़की उसी यातना की कहानी है जिस का एक कारण परोक्ष रूप में पहली कहानी में सुमि का विवाह करना है। पुरुष वर्चस्व, विवाह की विसंगतियां ओर स्त्री के उस मनोविज्ञान की कहानी है जिस के बीज-संस्कार बचपन से ही उस के अंदर जड़ जमा लेते हैं। तलाक के मुकदमे के बाद भी वह आशाओं के स्रोत उसी निर्मम पति में ढूंढने का प्रयास कर रही है।
 
     सूर्यनाथ की मौत पीढ़ियों की सोच में अंतर, आधुनिकता की चकाचौंध, आम आदमी की र्इमानदारी, उस के अंतर्द्वंद्व और अनवरत संघर्ष की प्रतीकात्मक कहानी है। इस बाज़ारवाद में गांधी को गोली से नहीं बाज़ार में जिंस बना कर उपेक्षा से मारा जाता है। एक पठनीय कहानी।

     घोड़े वाले बाऊ साहब उस मनोविज्ञान की कहानी जहां आर्थिक रूप से लगभग ढहने के बाद भी जडों में समाए सामंती अवशेष कभी समाप्त नहीं होते। इसी तरह संतान की चाहत भी अंधविश्वास या नैतिकता के किसी बंधन को स्वीकार नहीं करती। गांव भले ही बदल रहे हों लेकिन गोधन सिंह ऐसे लोग सामंती व्यवस्था के प्रतीक अभी बचे हैं जिन के लिए घोड़े की लगाम या बीवी की लगाम एक तरह की चीज़ है।
 
     देश के विभाजन के दुष्परिणामों की विभीषिका कभी खत्म नहीं होती। जहां अब्दुल मन्नान उर्फ मन्ना जैसों की नियमि हर जगह ठुकराए जाने की है जहां उन पर अविश्वास किया जाता है। उपन्यास के विपरीत कहानी की तकनीक में उसका विषय किसी एक बिंदु पर केंद्रित होता है। यही उसे सशक्त बनाता है। मन्ना जल्दी जाना देश छोड़ कर गए मुसलमानों की समस्या, उन पर अविश्वास, राजनीतिक दांव-पेंच, सांप्रदायिकता, लोलिता जैसे संबंध का घालमेल भले ही कहानी के स्थान पर उपन्यास की भूमिका मालूम होती है। यह संग्रह के संग्रह के शीर्षक के अनुसार पारिवारिक कहानी तो नहीं प्रतीत होती।
 
     संवाद पत्र शैली में पीढ़ियों के अंतराल, पिता-पुत्र में संवादहीनता, उत्पन्न कुंठा के मनोविज्ञान की पठनीय कहानी है। इस के विपरीत भूचाल में एक मां के मन मे पलती कुंठा है जो उसे विक्षप्त ऐसा कर देती है। मां के संवादों से प्रकट होता है कि वह अपने पुत्र से घृणा करती है क्यों कि वह उस के साथ बलत्कार से उत्पन्न हुआ है। पौराणिक काल से धारणा है कि पुत्र केवल मां का अंश होता है, भले ही वह नियोग द्वारा उत्पन्न हुआ हो हो। परंतु मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि वहां उस की सहमति रहती है। वस्तुत: कहानी का अव्यक्त पक्ष - स्त्री की सहमति-अस्मिता का है। राम अवतार बाबू भी मनोग्रंथियों की कहानी है। परंतु वो मनोग्रंथि भले ही परिवार के क्षोभ का कारण रही हो जीव-जंतुओं, परिवेश-पर्यावरण के लिए वरदान साबित होता है। कन्हर्इ लाल अशिक्षा की एवं मेड़ की दूब ग्रामीण समस्याओं, सूखे, अंध​विश्वास की कहानी है। इस की काव्यातमक भाषा इसे अन्य कहानियों से अलग करती है।
 
     किसी भी रचना के सृजन के बाद रचना स्वयत्त अस्तित्व ग्रहण कर लेती है। प्रत्येक पाठक द्वारा रचना का अपना निजी पाठ होता है। संग्रह में ब्लर्ब, लेखक की भूमिका और समीक्षा (शन्नो अग्रवाल) द्वारा कहानियों का परिचय-व्याख्या पाठक को इस कदर पूर्वाधिकृत (preoccupied) कर देता है कि पाठक के पास सोच-विचार की गुंजाइश नहीं बचती। आज का पाठक सजग पाठक है। इस कदर के निर्देशन निश्चित तौर पर पठनीयता को विपरीत ढंग से प्रभावित करते हैं।

कहानियों में लेखक की घटनाओं की सतह पर निरीक्षण क्षमता तो है परंतु गहरे उतर कर पात्रों के अन्तर्मन को खंगालने से कहानियां स्मरणीय बन सकती थीं।

[ कथाक्रम से साभार ]



समीक्ष्य पुस्तक :
 
ग्यारह पारिवारिक कहानियां
लेखक - दयानंद पांडेय
प्रकाशक
सजल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
500 /3 - एल  गली नंबर -2
विश्वास नगर , शाहदरा , दिल्ली -110032
मूल्य - 350  रुपए
पृष्ठ - 184 

प्रकाशन वर्ष -  2014
 

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